क्या कठिन है? नहीं तो रावण सोने की लंका बनाने में सफल हो गया, हिरण्यकशिपु सोने का हिरण्यपुर बनाने में सफल हो गया, ऐसा उनका तप था लेकिन शरीर, मन और बुद्धि तक ही तो पहुँचे! यह तपोमय बुद्धि, एकाग्रता तो उन्हें मिली किंतु स्वतः सिद्ध जो सुख है वह नहीं मिला।
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यह पहले संत कवि हैं जिन्होंने अपने ज्ञान के स्रोत का वर्णन स्पष्ट रूप से करते हुए मानस में पहले ही लिखा है कि.... छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस! उनके तपोमय जीवन के प्रति किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि ' आत्माराम ' की राममय हो गयी और ' हुलसी ' पुत्रहित हवन हो गयी।
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अनन्त आकाश मण्डल में अपने प्रोज्ज्वल प्रकाश का प्रसार करते हुए असंख्य नक्षत्र-दीपों ने अपने किरण-करों के संकेत तथा अपनी लोकमयी मूकभाषा से मानव-मानस में अपने इतिवृत्त की जिज्ञासा जब जागरुक की थी, तब अनेक तपोधन महर्षियों ने उनके समस्त इतिवेद्यों की करामलक करने की तीव्र तपोमय दीर्घतम साधनाएँ की थीं और वे अपने योग-प्रभावप्राप्त दिव्य दृष्टियों से उनके रहस्यों का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए थे।
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आज ग्रामों के नगरीकरण की मार से मानिला गॉव कुछ कुछ एक मैदानी कस्बे जैसा लगने लगा है-अहर्निश बढ़ती आबादी, दिन प्रतिदिन कटते वृक्ष, ग्राम में पानी की ऊँची टंकियाँ, सड़कों के किनारे खड़े होते बिजली के खम्भे, हाथों में मोबाइल और घरों में टी ० वी ०, तथा रामनगर से आने वाली मुख्य सड़क पर लगी चार पहियों के वाहनों की कतार सभी कुछ इस तपोमय भूमि के उच्छृंखल स्वरूप धारण कर लेने की कहानी कह रहे हैं।
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किंतु यह नहीं बताया कि सूफी भक्तों और दरवेशों के पास थी या नहीं? डॉ. द्विवेदी अच्छी तरह जानते थे कि स्वयं रामानंद ने सूफी भक्तों के अनन्य प्रेमसे प्रभावित होकर इसे विशेष मान्यता दी थी. डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल की तो स्पष्ट मान्यता थी और डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी इस से भली प्रकार परिचित भी थे कि ” सूफी मत की विशेषता केवल तपोमय जीवन न होकर परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम भावना है जिस से समस्त संसार उन्हें परमात्मामय मालूम होता है.
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ऋषि श्रृंग ने देखा कि उनका पुत्र ब्रह्मचर्य पूर्वक वेदों का अध्ययन करके विद्वान हो गया है, तब उन्होंने पिता के कहे हुए वचन का स्मरण हुआ कि एक पुत्र होने के पश्चात वन में चले आना फिर उन्होंने ध्यान पूर्वक आत्म चिंतन किया तो अनुभव हुआ कि पिता के आश्रम में कंद, मूल फलों का सात्विक आहार करते हएु उनका जीवन कितना पवित्र शुद्ध एवं तपोमय था और अब राजमहल में राज्यान्न, नाना प्रकार के मिष्ठान, एवं पकवान आदि ग्रहण करते हुए वहीं जीवन कितना भोगमय पराड्गु मुख हो गया है?