उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी।
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कुमार मुकुल हां, प्रौढता के लिहाज से आपकी बात सही है पर जो नयी जमात साहित्य में आती रहती है उसके लिये आगे बढ गये लोगों को पिछली सुचिंतित बातों पर भी विचार करते रहना चाहिए।
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स्वभावत: ही कवि की परवर्ती श्रेष्ठ कृतियों की तुलना में ऋतुसंहार जैसी लघुकाय और आरम्भिक कृति उपेक्षित होती चली आयी है, तथापि कल्पनाओं की कमनीयता, भाषा की प्रौढता और सरलता की दृष्टि से यह यह कृति महत्त्वपूर्ण है।
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क्या कुछ नयापन है? इस लिहाज से देखें तो ये साफ साफ दिख रहा है कि ये साल, मुख्यत: उन कवियों का रहा जो उम्र और अभिव्यक्ति, दोनों दृष्टियों से प्रौढता की तरफ कदम बढा रहे हैं।
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सब लोग जैसे ही उम्र के 30वें साल में पहुंचते हैं गिरोह की प्रौढता जारी रहती है. टेड के प्रस्ताव पर स्टेल्ला हामी भरती है, पर उसे वेदी पर छोड़ कर अपनी बेटी के पिता टोनी से दुबारा मिलने के लिए चली जाती है.
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सब लोग जैसे ही उम्र के 30वें साल में पहुंचते हैं गिरोह की प्रौढता जारी रहती है. टेड के प्रस्ताव पर स्टेल्ला हामी भरती है, पर उसे वेदी पर छोड़ कर अपनी बेटी के पिता टोनी से दुबारा मिलने के लिए चली जाती है.
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गुम्बद में घंटे की आवाज की तरह-“ मुझे जे पढाएगी जे...! ” उनके लिये उसने पढाएंगे की जगह पढाएगा ही नही पढाएगी का प्रयोग करके अपनी प्रौढता व महत्ता तथा मास्टर जी की नगण्यता व निरीहता की घोषणा बडे विश्वास से करदी थी ।
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कविता क्या कहूँ शब्दचित्र है समय की भित्ति उकेरे गए भित्तिचित्र, गज़ब का बिम्ब विधान, कितनी तो राजनीतिक प्रौढता है पहली कविता में दो पीढियां एक ही युग में एक ही समय को कैसे भांप आँक और देख रही है, कितन गाढ़ा, कितनी भाव्सान्द्र अभिव्यक्ति ……….
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हरिहर वैष्णव के लिये लाला जगदलपुरी कहते हैं-“ नयी पीढी से निराशा हाथ लगने के बावजूद नयी पीढी में अप्रत्याशित रूप से कुछ एसे प्रतिभा सम्पन्न और उल्लेखनीय चरित्र मिल ही जाते हैं, जिनकी रचनात्मक सक्रियता पर गौरव होता है-जिनकी तरुणाई में चिंतन की प्रौढता पायी जाती है और जो प्राय: प्रौढों और वयोवृद्धों के चिंतन संगी हुआ करते हैं।
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-यदि इसे दिग्भ्रम लिया जाय तो जैसा ग्यान्दत्त जी ने कहा यह भारतीय जीवन का अन्श नहीं जहां प्रत्येक कदम पर प्रौढता के साथ गुरु-गाम्भीर्य आना आवश्यक होता है....हां पाश्चात्य-आधुनिक-भोगवादी-संस्क्रिति में यह एक फ़ैशन के तौर पर हो सकता है जहां कम उम्र में ही सब कुछ मिल जाता है और कर्म ईश्वर आधारित नहीं होता तथा ईश्वर, धर्म,दर्शन, साहित्य, भजन-पूजन का कोई स्थान नहीं होता..