स्पर्श के साथ ही चेतनावस्था जाग्रत होने लगी.... आह! शरीर बर्फ सा जमता ही जा रहा था-लेकिन उस मासूम की बंद आँखों में कहीं जीने की तमन्ना हिलोरे ले रही थी, जो उसके चेहरे से साफ़ दिख रही थी.....
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बारिश की बुँदे ज़मीन पर उतर कर समा जाती है, अपना आसमानी अस्तित्व भी मिटाकर समा जाती है उसमे बर्फ सा गुरुर कहा जो ज़मीन पर आकर भी अपनी सफेदी से सब कुछ ढक देता हो.... बुँदे टिप टिप बरसती, अपने ही ठण्ड में ठिठुरती...
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बर्फ सा ठंडा वह शव जिससे एक महीने पहले ही मैं गले लगी थी, जिसकी गर्माहट इतनी थी कि अपनी बिटिया उन्हें सौंप आई थी, जिसे मैं अपने हाथों से श्रृंगारकर दुलहन बना अपने घर लाई थी, उस ही का एक बार फिर श्रृंगार करने को मुझे कहा गया।
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छुआ है अंतर्मन की गहराई से कभी तुम्हारी गरम हथेली को और महसूस किया है तब बर्फ सा जमा मन धीरे धीरे पिघल कर एक कविता बनने लगता है देखा है कई बार तुम्हारी आंखों में सतरंगी रंगो का मेला मेरी नज़रों से मिलते ही वह सपने में ढलने लगता है तब......
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मानस के किनारे पर स्थित ठूगू शिविर तथा ठूगू शिविर से मानस के उस पार दूर स्थित कैलाश पर्वत के विविध रूप दोपहर से ही देखने को मिल रहे हैं कभी बर्फ सा चमकता उज्ज्वल रूप, कभी बादलों की परछाई से युक्त राख जैसा नीला-स्लेटी रूप तो कभी पूर्ण रूप से मेघाच्छादित।
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उत्तर मरिचिका से भ्रमित हो वह प्रश्न कर बैठे हैं थोडा पास आकर देखें जीवन बिल्कुल सपाट है अपने निष्टुर आंखों से जो आग उगलते रहते हैं उनपर बर्फ सा गिरता मेरा निश्छल अट्टहास है जीवन ने फल जो दिया वह अन्तकाल मे नीम हुआ उसे निगल मुस्काती अपने रिश्ते की मिठास है
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गिरते हैं पत्थर अब और धूमकेतु उल्का भी उनसे भी तेज, और तेज टी.वी. के चैनल नहीं कोई ठहर पाता कितनी चिकनी यह सतह है नहीं जल अब जरा भिगो पाता भीतर रखा था वह स्निग्ध कोमल छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था अचानक शीत पाकर पछुआ हवा से बर्फ सा हो गया है।
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मे थम सा जाता हु, ज़म सा जाता बर्फ सा इस सर्दी मे, ओंस की बूंदों से तेरे नाम को लिखता हु मिटाता हु, के तुम नहीं हो कही भी दूर तक, और अंत मे तुमे खोता सा जाता हु, इन भीड़ भरे रास्तो पे खुद को अकेला पाता हु, क्य्यो जित के भी बार बार मे हार जाता हु.
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मैंने देखा मेरे खयालों में बफ़ सी जमी है जो यकीनन इस शहर की खासियत नहीं है, कॉफी हाऊस से निकलकर जेएलएन मार्ग से झालाना डूगरी का पथरीला पहाड दिखता है, जहा हमेशा एक पीली जर्द खामोशी रहती है, पर इस पर मानसून के महीनों में हरियाली की चादर फैलती है या फिर बारिश से पहले और उसके बाद बादलों के झुंड बर्फ सा मंजर बनाते हैं।
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मैं चुपचाप, अपनी उत्सुकता में बर्फ सा गलता हुआ अपने उस चहेते, अधेड़ दोस्त को अनुभव कर रहा था जो नौ महीने पहले बंबई की एक मनहूस, बरसाती रात में मुझसे बिछुड़ गया था और आज, अचानक, बिना पूर्व सूचना के अपनी उस चिर परिचित सीट पर आ बैठा था जो इन नौ महीनों में निरंतर घटती अनेक घटनाओं के बावजूद एक जिद्दी प्रतीक्षा में थिर थी।