दर्द की हर रात से मुस्कुराकर गुजर जाना उसका, गर्द और काँटों को हमारी राहों से बुहारना उसका, रातों की परेशानियों को लोरियों से बहलाना उसका, अपने दामन में छिपा वीराने,गुलिस्तान सजाना उसका, आज भी याद हैं वो गुनगुनाते नगमें,आज भी ख्वाबो में माँ मुस्कुराती है.
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नई नवेली बहु को तो घूंघट काढ़े चार-चार घरों का आंगन बुहारना पड़ता और मजाल है कि कहीं कचरे का एक कण भी रह जाए! चाहे कच्चा हो, चाहे पक्का, चाहे मुश्तरका ; बहु को तो बुहारना ही है, चाहे सारी पृथ्वी हो जाए आंगन …… ।
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नई नवेली बहु को तो घूंघट काढ़े चार-चार घरों का आंगन बुहारना पड़ता और मजाल है कि कहीं कचरे का एक कण भी रह जाए! चाहे कच्चा हो, चाहे पक्का, चाहे मुश्तरका ; बहु को तो बुहारना ही है, चाहे सारी पृथ्वी हो जाए आंगन …… ।
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पूरे १९ बरस तक माँ-पिता जी के साथ रहे...सबसे ज्यादा काम, सहायता, दुःख-सुख में भागी हमहीं रहे, कोई भी झंझट पहिले हमसे टकराता था, फिर हमरे माँ-बाउजी से...भाई लोग तो सब आराम फरमाते होते थे.....बाबू जी सुबह से चीत्कार करते रहते थे, उठ जाओ, उठ जाओ...कहाँ उठता था कोई....लेकिन हम बाबूजी के उठने से पहिले उठ जाते थे...आंगन बुहारना..पानी भरना....माँ का
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दर्द की हर रात से मुस्कुराकर गुजर जाना उसका, गर्द और काँटों को हमारी राहों से बुहारना उसका, रातों की परेशानियों को लोरियों से बहलाना उसका, अपने दामन में छिपा वीराने,गुलिस्तान सजाना उसका, आज भी याद हैं वो गुनगुनाते नगमें,आज भी ख्वाबो में माँ मुस्कुराती है....माँ को समर्पित मर्मस्पर्शी रचना.....सच क्या क्या नहीं करती माँ अपने बच्चों की खातिर.....अपना दुःख-दर्द भूलकर मुस्कराती रहती है बच्चों के सामने......
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मुस्कानें ग़ायब हैं, जेब में उबासी है // रूठने मनाने के झूठे सब नाटक हैं / भूख बहुत ज्यादा है,प्यास बहुत प्यासी है // भूल रहे सपने हैं,यादें हैं थकी-थकी / पीडाएं ताज़ी हैं गीत सभी बासी हैं // एक सी कहानी है,एक जैसे क़िस्से हैं / गुदगुदी ये बचपन की बाकी जरा सी है // अंधों की दुनिया पर गीत सब उजालों के / लगता है दोपहरी शामों की दासी है // कविता कविता? कविता को पजामे की तरह पहनना उतारना, झाड़ू की तरह बुहारना, क्या ठीक है?