क़िबला कभी तरंग में आते तो अपने इकलौते बेतकल्लुफ़ दोस्त रईस अहमद क़िदवाई से कहते कि जवानी में मई-जून की ठीक दुपहरिया में एक हसीन कुंवारी लड़की का कोठों-कोठों नंगे पांव उनकी हवेली की तपती छत पर आना अब तक (मय डायलाग के) याद है।
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सत्तर के दशक का आखिर! सिगरेट, मुकेश का गाया वह गाना और दिनेश ठाकुर का वह बेतकल्लुफ़ अंदाज़! उन की वह मासूम अदा हमें भी तब भिगो देती और सिगरेट के धुएं में हम भी अपनी जानी-अनजानी आग और अपनी जानी-अनजानी प्यास के पीछे भागने से लगते।
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मोदी जी इस कार्यक्रम के लिए तैयार तो बिना किसी ख़ास हील-हुज्जत के हो गए थे पर शंका थी कि मुख्यमंत्री हैं, लोगों का कहना है कि मिज़ाज भी कुछ तीखा है, पता नहीं कैसा मूड हो और बीबीसी एक मुलाक़ात कि कुछ चुलबुली, बेतकल्लुफ़ और ग़ैर परंपरागत शैली से उखड़ न जाएं.
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मोदी जी इस कार्यक्रम के लिए तैयार तो बिना किसी ख़ास हील-हुज्जत के हो गए थे पर शंका थी कि मुख्यमंत्री हैं, लोगों का कहना है कि मिज़ाज भी कुछ तीखा है, पता नहीं कैसा मूड हो और बीबीसी एक मुलाक़ात कि कुछ चुलबुली, बेतकल्लुफ़ और ग़ैर परंपरागत शैली से उखड़ न जाएं.
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नंद भारद्वाज जी कवि के बेतकल्लुफ़ अंदाज की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं कि कवि आस पास की ज़िन्दगी के ब्यौरों के बीच अपने मनमौजी स्वभाव के अनुरूप सहज-सी उक्तियाँ करता चलता है और उसी प्रक्रिया में कविता का जो पाठ निर्मित होता है, कवि उसमें बगैर किसी कांट-छांट के अपनी बात को एक लॉजिकल बिन्दु तक ले जाता है और वहीं विराम दे देता है।
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लफ़्ज़ झूठे अदाकारियाँ ख़ूब थीं हुक़्मरानों की अठखेलियाँ ख़ूब थीं तूने पिंजरे में दीं मुझको आज़ादियाँ ज़ीस्त! तेरी मेहरबानियाँ खूब थीं धूप के साथ करती रहीं दोस्ती नासमझ बर्फ़ की सिल्लियाँ खूब थीं मेरी आँखों के सपने चुराते रहे-दोस्तों की हुनरमन्दियाँ ख़ूब थीं बेतकल्लुफ़ कोई भी नहीं था वहाँ हर किसी में शहरदारियाँ खूब थीं जून में हमको शीशे के तम्बू मिले बारिशों में फटी छतरियाँ ख़ूब थीं हम छुपाते रहे अपने दिल के घाव को इसलिए क्योकि आपकी हिकारत ख़ूब थीं.
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(ये कमाल ईमान की बात थी और निहायत सआदत मंदी की कि ज़ैद के दिल में इस ख़याल से कि रसूल अल्लाह ने पैग़ाम भेजा है, इस कद्र अजमत और हैबत इन के दिल में छा गई कि नज़र न उठा सके और अफ़सोस इस वक़्त है लोगों पर कि हदीस ए मुहम्मद की अजमत और बड़ाई पर कुछ भी न ख्याल आया और बेतकल्लुफ़ झूटी तावीलें और यह ख़याल नहीं करते कि यह खास ज़बान वह्यी की तरजुमानी से निकली है जिसकी एक शान है।
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अहले देर-ओ-हरम रह गए अहले देर-ओ-हरम रह गए तेरे दीवाने कम रह गए उनकी हर शै संवारी मगर फिर भी जुल्फों में ख़म रह गए देखकर उनकी तस्वीर को आईना बनके हम रह गए बेतकल्लुफ़ वो ग़ैरों से हैं नाज़ उठाने को हम रह गए हमसे पी कर उठा न गया लड़खड़ा के क़दम रह गए मिट गए मंजिलों के निशां सिर्फ़ नक्श-ए-क़दम रह गए पास मंज़िल के मौत आ गयी जब सिर्फ़ दो क़दम रह गए अहले देर-ओ-हरम रह गए तेरे दीवाने कम रह गए