भूमिहीनता के मुद् दे को खगालने पर पाते हैं कि यहां भी सबल का एकाधिकार है, जो व् यक् ति खेत में जमीन में अपना जीवन स् वाहा कर रहा है वह या तो खेतिहर मजदूर है या भूमिहीन ।
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अनुसूचित जाति, भूमिहीनता, शिक्षित वयस्क का न होना, परिवार का मुखिया महिला होना अथवा खेत मजदूर होने में से एक प्रश्न का भी ' हां ' में उत्तर मिलता है तो परिवार को गरीब की सूची में शामिल किया जाना चाहिए।
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पसरी हो भय भूख जब आम आदमी के द्वार नहीं बदले है कुछ हालात्त कहने भर को बस है तरक्की दूर है आज भी आम आदमी से वह भूख भय भूमिहीनता के अभिशाप से व्यथित माथे पर हाथ रखे जोह रहा बार बार ।
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इसी का नतीजा है कि वर्तमान व् यवस् था में भी आज भूमिहीनता दरिद्रता और छुआछूत का अभिशाप दबा तबका झेल रहा है, तरक् की से कोसो दूर बैठा आंसू बहा रहा है और दूसरी ओर छल-बल के सहारे आदमी भगवान तक को ठेंका दिखा रहा है ।
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औरत के गहन प्रे से तो सभी वाकिब है पर समय आने पर त्याग करने से भी औरत नहीं हिचकती इसका प्रमाण है इस उपन्यास में सार में कह सकता हूँ की यह उपन्य गरीबी, भूमिहीनता, सामाजिक, आर्थिक विषमता स्त्री-पुरुष के भेदभाव पर प्रहार है.
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बिछ जाए गाँव धरती पर विकास कट जाए भूमिहीनता, निर्धनता, अशिक्षा के अभिशाप पड़े पाँव सच्चे भारतवासी के जहा-जहा धनिया-सरसों के खेत जैसे उपजे नज़ारे हमारी रो बस यही पुरानी आस है प्यारे पूरे सफ़र नयनो से खेले चाँद-सितारे यही वृतांत है ग्रामीण भारती का हमारे................
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जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की खण्डपीठ ने स्पष्ट टिप्पणी दी कि ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि सम्भवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत बचे हैं वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है।
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फैसले में बार-बार इस बात को दुहराया गया है कि ‘यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि संभवतः भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत ही बचे हैं, वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या, जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है'.
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फैसले में बार-बार इस बात को दुहराया गया है कि ' यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि संभवतः भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत ही बचे हैं, वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या, जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है'.
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जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की खण्डपीठ ने स्पष्ट टिप्पणी दी कि ‘ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि सम्भवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत बचे हैं वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है।