कुछ हाइकु (१)मंदिर द्वारे जीवन अभिशाप देव दासी का (२)लाख पहरे खोल कर खिड़की उड़ा परिंदा (३)निगल रहा आदमी को आदमी अजगर सा (४)हजारों जख्म जिन्दगी की पीठ पे रिश्ते खंज़र(५)प्रथम स्पर्श स्निग्ध मंद हवा सा प्रियतम का (६)आँखों की खुश्बू गंधीले कर देती जीवन क्षण (७)मन चेतना जीवन बदलती मूल चेतना
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अवनि अवनि हरा लिबास और सुंदर मुखड़ा जैसे हो धरती का टुकड़ा नीली नीली प्यारी आँखें झील सी गहराई उनमें मैं देखता ऐसा लगता जैसे झील किसी से करती बातें हँसी तेरी है झरने जैसी चाल तेरी है नदिया जैसी मंद हवा सा हिलता आँचल अवनि सा दिल तुझे दे गया मुझको अपने साथ
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दीन-दुनिया.... और अखबारों से दू र.... लगी हूँ.... काम काज में बस राहत के लिये कविताएँ और कहानियाँ ही पढ़ती हूँ....... सच में..... बहुत सुकून मिलता है....... अनकही बातें.............. बसंत की इस खिली धूप की तरह बगीचों मे खिले फूलों की तरह खुली और मंद हवा में झूमते हुए
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तुम्हे फिर अपने प्रेम में रंग पाएंगे जब, तुम हमसे रुठोगे कीर्ती वैदया क़ैद कई दिन बाद कमरे में आना हुआ सब सहजा, जैसे कुछ बदला ही ना वही कुर्सी व छनी धूप के कण मंद हवा से उड़ते फैले सूखे पत्ते धूल चढी हंसती तस्वीरो का रंग सब धुंधला था, कुछ शेष था, गूंजती कानो में पुरानी बाते क़ैद जो मेरी स्मृति में ना कीसी कमरे में.... कीर्ती वैद्य कुछ ऐसे ही...
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साँकल गवाह है कुछ भी गया नही!!-बंद है मजबूत तालों के पीछे, यादें, धरोहरों में तब्दील होतीं, खंडहर बनती, दीवारों में रिसती, ताकती अब भी रास्ता, कि, बदलेगा समय, बदलेगी नियति, और मंद हवा का झोंका, एक बार फिर हरा कर देगा, सीलती यादों को, और खंडहर फिर जाग उठेंगे, फिर होगा कलरव, और उड़ जायेंगे, कबूतर, गुम्बदों से।
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एक हूक सी उठती है दिल में, रहे होंगे कभी बीज रूप में, मिटटी के पोषण से आकार लिया होगा एक नरम मुलायम पौधे ने-बड़े संघर्षों के बाद स्वयं को बचाते हुए-बड़ा हुआ होगा वृक्ष, उगी होंगी फूल और पत्तियां फूटी होंगी कोपलें कभी बहता होगा हरा द्रव होगी सम्पूर्ण चेतना उसमे, नाचा होगा, मंद मंद हवा के झोकों में महकाया होगा वन उपवन, प्रफुल्लित हुआ होगा-जब किसी पथिक ने, बिताये होंगे क्षण दो क्षण, उसकी छाया में वही वृक्ष आज है निर्जीव, मनुष्य के क्रूर बेरहम हाथों ने छीन लिया उसे इस धरा से.