लीला मेनोन ने जो विशेष बात लिखी है वह यह है कि ज़िंदगी तो ज़िंदगी, मौत को स्वीकार करने में भी नारी को नर की आज्ञा का पालन करना पड़ता है, और वह भी सर्वाधिक साक्षर सभ्य मातृप्रधान समाज में।
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यदि किसी जन्मकुंडली में मजबूत संतान पक्ष है, तो वह मातृप्रधान युग में सामान्य व्यक्ति के लिए या किसी भी युग में एक वेश्या के लिए लड़की की अधिकता का संकेत देती है, पर पितृप्रधान युग में वही योग लड़के की अधिकता देगी।
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और मातृप्रधान देश जहाँ आज भी देवताओं से पहले देवियों को प्रधानता दी जाती है-यथा सीताराम, राधाकृष्ण, गौरीशंकर आदि में पहले माताओं का नाम लिया जाता है, वहां पर इनकी इस उच्च प्रधानता को नीचे गिराकर बराबरी का दर्ज़ा देने के सर्वथा अनुपयोगी एवं निराधार नारे लगाए जाने लगे है।
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इस रैंडमियाने में आपका तो असल सवाल ही ग़ुम हो गया कि भारत माता क्यों, पिता क्यों नहीं? वैसे इसका सरल सा किताबी टाइप जवाब देना हो तो कहा जा सकता है कि हमारी संस्कृति मातृप्रधान है, इसलिए मदरलैण्ड की बात करते हैं और उनकी पितृप्रधान तो वे पितृभूमि की बात करते हैं.
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इच्छाशक्ति युक्त ‚ अपनी मांगों को लेकर हठधर्मी ‚ अपने पिता कि लाड़ली ‚ मां विषयक कोई जानकारी नहीं है ‚ कच के प्रति आकर्षित ‚ ययाति को प्रभावशाली तरीके से विवाह के लिये बाध्य करना ‚ क्रोध में अपने पिता से शिकायत कर ययाति को वृद्ध हो जाने का श्राप दिलवाना और उसके भी मातृप्रधान गुणों का कोई सबूत नहीं सिवा इसके कि उसके दो पुत्र थे।