अष्टावक्र जी मूढ़ पुरूष को भी इंगित करते हैं कि अति सुंदर चैतन्य आत्मा के बारे में सुन लेने के बाद भी उपस्थित विषयों में आसक्त हुआ पुरूष आखिर मूढ़ की तरह व्यवहार क्यों करता है……. श्रुत्वाऽपि शुध्द चैतन्य मात्मानमति सुन्दरम्/उपस्थेऽत्यन्त संसक्तो मालिन्य मधि गच्छति।
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लेकिन वे थामे रहतीं हैं सिर्फ और सिर्फ जीवन की खुशियों को और इसका प्रतीक है गनगौर का यह उत्सव जब एक नाम लेने में स्नेह और लज्जा की नदी को पार करते-करते वे उसमें डूब जाती है और निकलतीं हैं सारा विषाद, निराशा और मालिन्य धोकर ।
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हा) पर वे आ न सके और इसलिए जाते वक्त मेरे मनो मालिन्य को दूर करने “ बिखरे मोती ” की एक प्रति के साथ मुझसे बाकायदा क्षमा याचना की! मैं कृत कृत्य हो गया! ऐसी विनम्रता, विशाल हृदयता अब कहाँ और कितनों में है!
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एक दिन ढाबा भी अपने पांव खड़ा हो जाता है और मां के मन का मालिन्य भी बेटियों के लिए मिटने लगता है, परंतु बेटियों की नाकामयाबियों के कारण पिता सूखे कुंए में तबदील होने लगते हैं और लेखिका को आभास होता है कि अचानक पिता बूढ़े भी होने लगे हैं।
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तो हमारे भीतर का मनो मालिन्य, अंहकार, क्रोध, माया इत्यादि को त्याग कर चुके हो और परम पिता परमेश्वर के सामने हम सर झुका कर, उन्हें प्रणाम करते हुए, उनके चरणों में अपने आपको गिरा कर, उनसे अपने विषय-वासना के कार्यो के लिए क्षमा मांगते हुए उनकी शरण में जाए...प्रणाम!!!
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ताकि जब हम अपने प्रभु से मिले, तो अपने भीतर के मनो मालिन्य, अंहकार, क्रोध, माया इत्यादि को त्याग कर चुके हो और परम पिता परमेश्वर के सामने हम सर झुका कर, उन्हें प्रणाम करते हुए उनके चरणों में अपने आपको गिरा कर, उनसे अपने विषय-वासना के कार्यो के लिए क्षमा मांगते हुए उनकी शरण में जाए … प्रणाम!!!
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कहना न होगा हमारे और उनके बीच कोई भी वैचारिक वैषम्य नहीं रहा. हमने व्यक्ति से समष्टि तक,रामपुरिया से कानपुरिया तक,कनाडा से कन्नौज तक,साकार से निराकार तक, नामी से बेनामी तक,तर्क से कुतर्क तक,रचना से अ-रचना तक बहुत ही भावपूर्ण संवाद नाश्ते के साथ किया-न किसी के प्रति कोई मानो मालिन्य और नही कोई निंदा भाव....सब समय के दास हैं..यही निष्पत्ति रही हमारी नाश्ता चर्चा का....