और फिर अगर सचमुच उनकी चिंता ग़रीब लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास है तो इन बुनियादी ज़रूरतों को बाज़ार की मुनाफ़ाखोरी के हवाले क्यों कर दिया गया है?
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मुनाफ़ाखोर अर्थव्यवस्था को न तो इस से मतलब होता है कि उसकी मुनाफ़ाखोरी गरीब को मार रही है…न ही इससे कि उससे मौलिक अधिकारों या संवैधानिक नीतियों का हनन हो रहा है।
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लेकिन जब तक गूगल के नैतिकता भरे नारों के बिल्कुल बेमानी हो जाने और मुनाफ़ाखोरी उसका एकमात्र लक्ष्य होने की बात बिल्कुल स्पष्ट नहीं हो जाती है उसे संदेह का लाभ मिलना चाहि ए.
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सारी बातों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि न तो मुनाफ़ाखोरी के लिए धरती के अंधाधुंध दोहन की इजाजत दी जा सकती है और न ही उसे पवित्र गाय मानकर पूजने की ज़रूरत है.
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सारी बातों को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि न तो मुनाफ़ाखोरी के लिए धरती के अंधाधुंध दोहन की इजाजत दी जा सकती है और न ही उसे पवित्र गाय मानकर पूजने की ज़रूरत है.
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लेकिन मुनाफ़ाखोरी की बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने समाज के तमाम मूल्यों, संस्कारों,निष्ठाओं और सरोकारों की जड़ को खोखला बनाना शुरू कर दिया है.जब पैसा ही समाज में पेशा और मुनाफ़ा संस्कार बन जाए तो किसी भी व्यवसाय का पतन सुनिश्चित है.
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सिर्फ़ तब तक के लिए जब तक कि बेइंतहां मुनाफ़ाखोरी से आए काले धन का इंतज़ाम न हो जाए और गांव-देहात में जो थोड़ी-बहुत चिरकुटई चमक है, वह भी सिमट कर इनके बंग्लों न आ जा ए. बस.
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पत्रकारिता को मुनाफ़ाखोरी का धंधा समझने वाली न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए), एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) और इंडियन न्यूज पेपर्स सोसायटी (आईएनएस) जैसी मालिकों के प्रभाव वाली संस्थाएं काटजू को ही कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करती रहीं.
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(यह एक भयानक चीज है इससे सरकार और उद्योगपतियों का गठबंधन इस तरह मजबूत हो रहा है कि इससे उद्योगपतियों की मुनाफ़ाखोरी इस तरह बढ़ेगी जिससे आवश्यक वस्तुओं की कीमतों का बढ़ना और अनावश्यक वस्तुओं का निर्माण बढ़ना अनिवार्य है) ।
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जब तक मीडिया पर गिने चुने मीडिया घरानों के एकाधिकार, क्रॉस मीडिया होल्डिंग (एक ही मीडिया घराने का हर तरह के मीडिया में स्वामित्व) और मुनाफ़ाखोरी पर लगाम नहीं लगेगी तब तक बड़े पैमाने पर अच्छे मीडिया की कल्पना कर पाना संभव नहीं है.