360 मिलीग्राम से 480 मिलीग्राम पुराने गुड़ को छाछ के साथ खाने से मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन) और सुजाक रोग में लाभ होता है।
42.
क्षय होने पर बस्ति प्रदेश में सुई चुभने जैसी व्यथा, मूत्र की न्यूनता, मूत्रकृच्छ विवर्णता, अतितृष्णा और मुखशोष ये लक्षण होते हैं ।।
43.
मूत्रकृच्छ (पेशाब करने में कष्ट या जलन) होना: प्रतिदिन सुबह गूलर के 2-2 पके फल रोगी को सेवन करने से मूत्रकच्छ (पेशाब की जलन) में लाभ मिलता है।
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मूत्रकृच्छ रोग के उपचार के लिए होम्योपैथिक औषधियों में स्पिरिट ऑफ कैम्फर, कैन्थरिस, कोपेवा, एपिस, टेरिबिन्थिना, क्लेमेटिस तथा बोरेक्स आदि मुख्य औषधियां है।
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बार्ली वाटर पीने से प्यास, उलटी, अतिसार, मूत्रकृच्छ, पेशाब का न आना या रुक-रुककर आना, मूत्रदाह, वृक्कशूल, मूत्राशयशूल आदि में लाभ होता है।
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(6) मूत्रकृच्छ (डिसयूरिया-पेशाब में जलन, कठिनाई) में तुलसी बीज 6 ग्राम रात्रि 150 ग्राम जल में भिगोकर इस जल का प्रातः प्रयोग करते हैं ।
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ककड़ी के बीज को छाछ के साथ या सुहागा 240 से 360 मिलीग्राम चूर्ण करके छाछ के साथ सेवन करने से मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन) में लाभ करता है।
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” “ 37 मूत्रकृच्छ (पेशाब करने में कष्ट) होना::-* 3 से 6 ग्राम अजवाइन की फंकी गर्म पानी के साथ लेने से मूत्र की रुकावट मिटती है।
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यह मूत्रकृच्छ पथरी (पेशाब करने की जगह मे पथरी), प्यास, वस्तीरोग, प्रदररोग और रक्तविकार (खून की खराबी)को दूर करता है, गर्भ की स्थापना करता है तथा यह श्रम और रजोदोष का निवारन…………….
50.
यह औषधि मूत्राशय की जलन, पेशाब करने में कठिनाई होना (मूत्रकृच्छ), मूत्राशय की सूजन तथा सुजाक आदि मूत्राशय से सम्बंधित लक्षणों को ठीक करने के लिए किया जाता है।