स्वीकार्य है हर ढंग तेरा रूपरंग, चलते रहे है हम तो साथसंग लगता था नहीं भायेगा हमारा रंगढंग ये धूपछांव ये गमले के रंग वो गाँव प्यारा खेतों का किनारा महकता सा आंगन चहकता सा सपना सुलगता सा सावन अखरता सा मौसम वो बहती सी नदिया..
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पूछते ही, बड़े सहज ढंग से मां ने जबाव दिया था-मान लो हमारी हर कोशिश के बाद भी, कल को हमारी यह बेटी यहां के रंगढंग में रंग ही जाए, और किसी काले-पीले से शादी की जिद कर बैठे तो कम से कम लटक तो सकूंगी बिना जिल्लत उठाए!
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कृपा कुलकर्णी के कोश के मुताबिक ‘ वैधेय ' से वेडा बनने का क्रम कुछ यूँ रहा है-वैधेय > वेढेअ > वेड्ढ > वेढ > वेड इस तरह वैधेय से ‘ वेड ' क्रिया बनी जिसमें मूल भाव विचित्र रंगढंग वाला था जिसमें आगे चल कर मूर्खता भाव रूढ़ हो गया।