अस्त्र शस्त्र, वेद शास्त्र, विद्या दान सब सिखाया क्षत्राणी का धर्म निभाया कूद के जौहर में रण भूमि में तुम्हारा मान बचाया वैधव्य भी नहीं डिगा सका मेरा स्वाभिमान पुत्र रक्त से रक्तिम धरा देख कर भी रहा ह्रदय पाषण ब्रहमांड की उत्पति प्रक्रिया मे ज्यों अणु टूट टूट के एक हो जाते हैं और एक नया ब्रहमांड रचते हैं ठीक उसी तरह देख रक्तिम कण अनगिनित शुर पुत्रो को जन्म देती हूँ तुम्हारा रणभूमि में शहीद होना..
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जैसे एक सैनिक रण भूमि में युद्ध करता हुआ अपने प्राणों की आहुति दे देता है, अपना बलिदान वह शहादत दे देता है ऐसे ही भाई श्री राजीव जी इस राष्ट्र निर्माण के, इस चरित्र निर्माण के इस अभियान में, इस युद्ध क्षेत्र में, इस कर्म क्षेत्र में कार्य करते हुए अपने हृदय में भारत के स्वर्णीम अतीत को संजोये हुए और वर्तमान की पीड़ाओं के कारण पीड़ित हो कर के एक भारत के स्वर्णीम अतीत का सपना अपने हृदय मे संजोकर के हर पल जीते थे।
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ऐसे में अंतिम सेनापति के रूप में दुर्योधन ने अपने सारथी शल्य को ही रण भूमि में सेनापति बनाकर भेजा...संजय यह दृश्य देखकर किंचित उपहासात्मक लहजे में धृतराष्ट्र से कहते हैं,'राजन,देखिये तो मनुष्य की आशा कितनी बलवान है कि अब शल्य पांडवों को जीतने चला है..' कहाँ भीष्म और द्रोण जैसे महायोद्धा और कहाँ एक अदना सा सारथि शल्य...भले ही कौरवों की पराजय हुयी मगर दुर्योधन की जीतने की आशा तो अंतिम घड़ी तक बनी रही...ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण भारतीय पुराण इतिहास में देखे जा सकते हैं...