ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है ; अत: जिस प्रकार ' शंका ' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह ' अनिश्चय ' भी।
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ऐसे स्थलों पर इस अनिश्चय का कारण रतिभाव ही होता है ; अत: जिस प्रकार ' शंका ' रतिभाव का संचारी होती है उसी प्रकार यह ' अनिश्चय ' भी।
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इसी रतिभाव से कृष्ण के साथ मिलकर एक हो जाने में वास्तविक आनंद है, जीवन फल की प्राप्ति है-poem > मोहनी मोहन सों रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
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उसके अन्तर्गत कभी रतिभाव की व्यंजना होती है, कभी प्रिय के महत्त्व को प्रकाशित करने वाले पूज्य भाव की, कभी प्रिय के महत्त्व के गर्व की और कभी धर्मानुराग की।
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इन तीनों के वर्णन क्रमश: रतिभाव, उत्साह और श्रद्धा द्वारा प्रेरित समझे जाएँगे और कवि का मुख्य उद्देश्य यह ठहरेगा कि वह श्रोता को भी इन भावों की रसात्मक अनुभूति कराए।
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मेरा खयाल है कि एक तो रतिभाव के आग्रह में, दूसरे बखान की संकोचहीनता में और प्रेम के लिए कठिन, लगभग प्रेम-विमुख समय में प्रेम के इतने लंबे सेलिब्रेशन के अर्थ में. ‘
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' पदमावत ' में रतिभाव की प्रधानता है पर उसके अन्तर्गत भी हम ' असूया ', ' गर्व ' आदि दो-एक संचारियों को छोड़ ' व्रीड़ा ' ' अवहित्था ' आदि अनेक भावों का कहीं पता नहीं पाते।
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साहित्य में एक मान्यता यह भी है कि रस सिद्धान्त में श्रृंगार को अधिक महत्व प्राप्त है, यहाँ तक कि कृष्ण भक्ति का आधार भी रतिभाव ही है (विष्णु पुराण-पांचवा खंड, अध्याय १ ३, १ ४) ; भागवत पुराण दाश्वान स्कंध).
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इस प्रकार रसखानि की प्रसिद्ध पंक्ति ‘ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछपै नाच नचावै ' में विस्मय की अभिव्यक्ति होने पर भी अद्भुत रस निष्पन्न नहीं हो सका है, क्योंकि यहाँ भगवान की भक्तवत्सलता की अभिव्यक्ति होने के कारण देवविषयक रतिभाव ही प्रधान बन गया है तथा विस्मय का भाव उसी का पोषक बनकर अंगभूत हो गया है।
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इस प्रकार रसखानि की प्रसिद्ध पंक्ति ‘ ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछपै नाच नचावै ' में विस्मय की अभिव्यक्ति होने पर भी अद्भुत रस निष्पन्न नहीं हो सका है, क्योंकि यहाँ भगवान की भक्तवत्सलता की अभिव्यक्ति होने के कारण देवविषयक रतिभाव ही प्रधान बन गया है तथा विस्मय का भाव उसी का पोषक बनकर अंगभूत हो गया है।