सुप्रसिद्ध आलोचक वंशीधर सिंह का स्पष्ट मानना है कि जीवन-संघर्ष की अंतर्ध्वनियाँ लोक-भाषा में सहजता से निस्सृत होती हैं, लोक हृदय में रच-बस कर लोककंठ में संवेगत्मक स्वर में फूटती हैं।
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साधुवाद्! जहां मैं थोडा असहज महसूस कर रहा था, भाषा ; कहीं कहीं आपने जो लोक-भाषा का प्रयोग किया वही कहीं किसी जगह असहजता का कारण बनती रही.
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वहां ‘ बांठे ' नाम के एक मध्यम आयु के हरिजन (चमार) ने मुझे ढोलक की थाप पर अपने सुरीले स्वर में स्थानीय लोक-भाषा में सम्पूर्ण रामायण गाकर सुनाई थी।
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राज-दरबार में रहते हुये भी उन्होंने समझ लिया था कि जन-रुचि के परिष्करण और रस के संस्कार देने के लिए लोक-भाषा के महत्व और साहित्य का समाजिक-जीवन से जुड़ाव कितना आवश्यक है.
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कबीर ने सहज भावाभिव्यक्ति के लिए साहित्य की अलंकृत भाषा को छोड़ कर ' लोक-भाषा ' को अपनाया-भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी, पंजाबी, अरबी, फारसी के शब्दों को उन्होंने खुल कर प्रयोग किया है.
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लोकभाषा का किसी रचनाकार के लिये क्या महत्व है? डॉ. जीवन सिंह का जवाब था कि अपने लोक से कटकर कोई कवि जनपक्षीय नहीं हो सकता, किन्तु मात्र लोक-भाषा के प्रयोग से भी कोई रचना जनपक्षीय नहीं हो सकती।
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और वो चाहते थे (शायद सैन्य श्रेष्ठता के लिए) कि जनता के साथ ताल्लुक़ात पैदा करने के लिए एक ऐसी भाषा को जन्म दिया जाए जो खुद अपनी तुर्कीय भाषा के साथ साथ लोक-भाषा के मिलाव से एक अनोखा मिश्रण हो।
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लोकभाषा का किसी रचनाकार के लिये क्या महत्व है? डॉ. जीवन सिंह का जवाब था कि अपने लोक से कटकर कोई कवि जनपक्षीय नहीं हो सकता, किन्तु मात्र लोक-भाषा के प्रयोग से भी कोई रचना जनपक्षीय नहीं हो सकती।
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लोक से लोक-भाषा एवं लोक-संस्कृति के साथ जो जुड़ा था उसने सिद्धों, नाथों जोगियों और सूफियों से सच्ची भारतीयता के साथ सम्प्रदायवाद से मुक्ति, संस्कृत और शास्त्रा का निषेध, मन्दिर और मस्जिद का निरोध, जाति और वर्ण का खण्डन जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्रा-पाठ सिखाया।
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लोक से लोक-भाषा एवं लोक-संस्कृति के साथ जो जुड़ा था उसने सिद्धों, नाथों जोगियों और सूफियों से सच्ची भारतीयता के साथ सम्प्रदायवाद से मुक्ति, संस्कृत और शास्त्रा का निषेध, मन्दिर और मस्जिद का निरोध, जाति और वर्ण का खण्डन जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्रा-पाठ सिखाया।