दरअसल ये बाज़ारवाद को पहले ओढ़ने, फिर पहन लेने और अब बिछा लेने का मुद्दा है, मसला जुड़ा है इस बात से किस तरह से जवानी में वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले, जनवादी लेख लिखने वाले और बाज़ार के ख़तरों से अच्छी तरह वाकिफ़ रहने वाले सीनियर पत्रकार सम्पादकीय पदों पर आते ही बाज़ार के पुजारी हो गए।