अब मार्ग एक ही है कि विचार पद्धति को बदलें, आस्थाओं को पुनः परिष्कृत करें और लोगों को ऐसी गतिविधियाँ अपनाने के लिए समझाएँ, जो वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख-शांति की स्थिरता में अनादिकाल से सहायक रही हैं और अंत तक रहेंगी ।।
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यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.
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यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.मैं द्विवाद (
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और दूसरी विचार पद्धति यह थी कि कुछ कामों में विशेष रूप से जिन चीज़ों का सम्बंध मुसलमानों के समाजिक जीवन से है, नस के सामने पूरी प्रकार तरह से नमस्तक नहीं हुआ जा सकता है बल्कि यह लोग अपने लिए रसूले इस्लाम (स.) के व्यवहार व कथन के मुक़ाबिले में विचार अभिव्यक्ति के स्वीकारकर्ता थे।
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वैदिक या हिन्दू धर्म ने विश्व को-ब्रह्म व ईश्वर की अवधारणा की एक विशिष्ट विचार-पद्धति प्रदान की है जो मानव इतिहास में एक अनूठी विचार पद्धति है जिसने अध्यात्म व दर्शन के ज्ञान को नयी-नयी ऊचाइयों तक पहुंचाया एवं मानव के स्वयं के आचरण को अत्यधिक महत्ता प्रदान की जो मानव जाति की प्रगति का मूल मन्त्र है ।
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उसके बाद उन्होंने अस्हाब के मध्य इस विचार पद्धति के कुछ उदाहरण वर्णन किए हैं जिनमें, उमर बिन ख़त्ताब शीर्ष पर थे और अंत में यह परिणाम निकाला है कि रसूले इस्लाम (स.) के देहांत के बाद इस विचार पद्धति का परिणाम यह हुआ कि इमामत व ख़िलाफ़त के बारे में मुसलमान दो भागों में विभाजित हो गए।
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उसके बाद उन्होंने अस्हाब के मध्य इस विचार पद्धति के कुछ उदाहरण वर्णन किए हैं जिनमें, उमर बिन ख़त्ताब शीर्ष पर थे और अंत में यह परिणाम निकाला है कि रसूले इस्लाम (स.) के देहांत के बाद इस विचार पद्धति का परिणाम यह हुआ कि इमामत व ख़िलाफ़त के बारे में मुसलमान दो भागों में विभाजित हो गए।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि पूरे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन करने के लिए आचार्य शुक्ल ने अपनी आलोचना के प्रतिमान, दो विरुद्धों का सामंजस्य करने वाले ÷रामचरित मानस' और तुलसीदास की विचार पद्धति के आधार पर ही निर्मित किये हैं किन्तु शुक्ल जी की आलोचना में सामंजस्य का परिणाम यह हुआ कि पौराणिक मत ही लोकमत और वर्णधर्म ही लोकधर्म बन गया।
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यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.
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की ख़िलाफ़त व स्थानापन्नता का उल्लेख करते हुए यह स्मरण कराया है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के सहाबा के मध्य दो प्रकार के विचार प्रचारित थे, एक विचार पद्धति यह थी कि उनके व्यवहार व कथन के सामने हर प्रकार से नमस्तक रहें और इस बारे में किसी दूसरे को विचार अभिव्यक्ति और तर्क वितर्क का अधिकार नहीं है।