कैसी विडम्बना है, इधर कार्यकर्ताओं द्वारा भीलों को शराब के नशे में धुत रखा जाता है, उधर नेता मंच से शराबबन्दी की अपील कर रहा है.
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अगर भारत में शराबबन्दी जारी करने के लिए लोगों को शिक्षा देना बन्द करना पड़े तो कोई परवाह नहीं: मैं यह कीमत चुकाकर भी शराब खोरी को बन्द करूंगा।
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लेकिन धर्मानन्द जी ने बूढ़ा केदारनाथ मंदिर में हरिजनों का प्रवेश कराया तथा डोला पालकी, शराबबन्दी आंदोलन, चिपको आंदोलन में सुन्दर लाल बहुगुणा आदि का सहयोग किया।
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इससे पूर्व 1965 से 1971 तक शराबबन्दी आन्दोलन में सक्रिय | 1981-83, पारिस्थितिकी चेतना के लिए कश्मीर में कोहिमा तक की 4870 किमी. की पैदल यात्रा की।
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लेकिन जिस व्यापक आंदोलन के चलते यह शराबबन्दी लागू हुई थी, उसका असर यहाँ भी देखने को मिलता है कि जनप्रतिनिधि भी विभाग को दुकान न खोले जाने का करारा जवाब देते दिखे हैं।
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आपको ऊपर से ठीक दिखाई देने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिये कि शराबबन्दी जोर-जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिये और जो लोग शराब पीना चाहते हैं उन्हें उसकी सुविधाएं मिलनी ही चाहिये।
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१ ९ ६ ० के नशा विरोधी आन्दोलन में भी रेवती जी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, उस समय उन्होंने हरिजन बस्ती धुनार खोला, श्रीनगर गढ़वाल में घर-घर जाकर शराबबन्दी के लिये कार्य किया और कई परिवारों को नशे के कारण नष्ट होने से बचाया।
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उत्तराखण्ड आन्दोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कुंवर प्रसून ने जेल का (शराबबन्दी सत्याग्रह में निरुद्ध) एक अनुभव लिखा था-जेल में सरकारी खर्च पर रहने के लिये एक व्यक्ति चाँदनी रात में, ' गुमानू, ताला तोड़ूँ? ' यह जोर-जोर से चिल्ला कर गिरफ़्तारी देता था ।
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यदि शराब / बीयर की तरह, सेक्स, वेश्यागमन, दो-चार पत्नियाँ रखना आदि कानूनन वैध बना दिया जाये तो समाज को इससे कितना और क्या फ़ायदा होगा यह स्पष्ट करें … गुजरात में शराबबन्दी लागू है, इससे समाज को क्या-क्या नुकसान हुए हैं यह भी स्पष्ट करने का कष्ट करें …
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गिर्दा जनगीतों के माध्यम से संघर्ष की प्रेरणा देते हैं, गिर्दा पहाड़ के किसी भी जनांदोलन से कभी अलग नहीं रहे, चिपको आन्दोलन हो या शराबबन्दी या पहाड़ों के पर्यावरण से खिलवाड़ करती कार रैलियां, उत्तराखण्ड आन्दोलन आदि सभी संघर्षों में गिरदा ने अपनी कविताओं से हमेशा आन्दोलनकारियों का हौंसला बढ़ाया है।