राघव को गाना तो नही आता था, पर गायन की जो समझ थी कि किस राग में कहाँ कौनसा कोमल और कहाँ शुद्ध स्वर लगना है...
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विशेषतः शुद्ध स्वर संयोग श्रृंगार, वीर इत्यादि रसों के वाहक होते है, वहीं कोमल स्वर वियोग श्रृंगार, करूण एवं शांत रसों के वाहक होते हैं।
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बारह स्वरों में से सात मुख्य स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं अर्थात इन स्वरों को एक निश्चित स्थान दिया गया है और वो उस स्थान पर शुद्ध कहलाते हैं।
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इन स्वरों के नाम हैं-सा (षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प ध, नि स्वरों के दो प्रकार हैं-शुद्ध स्वर और विकृत स्वर।
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भूगोल कहता है कि इन दो जगहों के बीच सैकड़ों मील की दूरी है, लेकिन संगीत की दुनिया में ये दो जगहें नहीं, एक-दूसरे से परस्पर अंत:क्रिया करते दो शुद्ध स्वर हैं।
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इस स्थल पर स्वर शब्द में शुद्ध स्वर ध्वनियां, यथा अ, आ, इ, ए आदि और संधिस्वर या डिफ्थॉंग, diphthong, जैसे ऐ, औ, दोनों शामिल हैं ।
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जब सा, रे, ग, म, प, ध, नि स्वरों में श्रुतियों का क्रम 4, 3, 4, 4, 3, 2, रहता है तो उन स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं।
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भूगोल कहता है कि इन दो जगहों के बीच सैकड़ों मील की दूरी है, लेकिन संगीत की दुनिया में ये दो जगहें नहीं, एक-दूसरे से परस्पर अंत: क्रिया करते दो शुद्ध स्वर हैं।
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इनमें से ५ स्वर ऐसे हैं जो शुद्ध भी हो सकते हैं और विकृत भी अर्थात शुद्ध स्वर अपने निश्चित स्थान से हट कर थोड़ा सा उतर जायें या चढ़ जायें तो वो विकृत हो जाते हैं।
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