| 41. | आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत! अंत: सर में मज्जित करके, हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके.
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| 42. | हरसिंगार के सुरभित सुमनों से सुवासित अंगनाई सी श्रांत क्लांत जीवन में भरती तव स्मृति तरुणाई सी तेरी छुवन हुआ करती माँ संजीवनी दवाई सी!
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| 43. | चाचा जी श्रांत यात्री की तरह युद्ध और असन्तोष से घबराते हैं. अब इनका मन महाप्रभु एकलिंग की अभ्यर्थना के अतिरिक्त हिंसा की ओर प्रवृत्त नहींहो सकता.
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| 44. | ज्योति-शर से पूर्व का रीता अभी तूणीर भी है, कुहर-पंखों से क्षितिज रूँधे विभा का तीर भी है, क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है?
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| 45. | शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।
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| 46. | युवाओं के नाम सन्देशः प्रसाद के शब्दों में, इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिक रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।
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| 47. | शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।
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| 48. | शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है।
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| 49. | ज्योति-शर से पूर्व का रीता अभी तूणीर भी है, कुहर-पंखों से क्षितिज रूँधे विभा का तीर भी है, क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है?
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| 50. | ज्योति-शर से पूर्व का रीता अभी तूणीर भी है, कुहर-पंखों से क्षितिज रूँधे विभा का तीर भी है, क्यों लिया फिर श्रांत तारों ने बसेरा है?
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