निज भविष्य की चिंता में, गैरों के पथ में कांटे बोये आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये लेकिन वो अपना दीदा खोता, जो अंधे के आगे रोये “ आशीष ” प्रबल है माया जग की, इंसां के सोचे क्या होए
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नायक-नायिका एक निराकार मोहब्बत और उसके दर्द की परमानंदावस्था से उतरकर साहिर, मजरूह, शैलेन्द्र, शकील, राजेन्द्र कृष्ण आदि का सहारा लेकर महबूब की श्लाघा में पहले से ज़्यादा दैहिक होते हैं, अभी-भी चाँद-बादलों की बात होती ही है पर सिर्फ़ वही नहीं:
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चाहें तो आज हम हाथ पर हाथ धरे आत्म श्लाघा की नदी में बहते रह जाएं, और चाहें तो आर्थिकता वाद और उपभोक्ता वाद की इस अंधी-दौड़ में दौड़ने से पहले अपने मूल्यों को दोहरा लें क्योंकि ऐसा करना आजभी हमारे लिए जरूरी ही नहीं, लाभकारी भी सिद्ध होगा।
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उनके लिए उन को सशक्त करने के लिए तन मन धन लगा देना चाहिए …..नहीं के दूसरों की दोड को ब्रेक लगा के पुरे देस की दोड को निर्माल्यता और आत्मा श्लाघा की गर्त में धकेल देना चाहिए … एक के हक को छीन के दूसरे को और दूसरे का छीन के तीसरे को करते रहना
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और जो स्वयं त्याग करता है, उसे जान ही नहीं पड़ता कि त्याग है क्या चीज़? अपने को दे देना उसके लिए साधारण दैनिक चर्या का एक अंग होता है, जो होता ही है, जिसे देखकर विस्मय, कौतूहल, श्लाघा, किसी से भी रोमांच नहीं होता, मुखर भावुकता नहीं फूटती...
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(५)ब्लोगी-सिसिज्म:यह चिठ्ठा सम्बन्धी व्यक्तित्व विकार औरतों को मर्दों से दस गुना ज्यादा होता है.कारण आत्म-विमोह,आत्म-रति,आत्म श्लाघा कुछ भी हो सकता है.हर कविता,हर ग़ज़ल में इसकी खुद की ही तस्वीर चस्पा होती है.अपने चिठ्ठे पे ज्यादा रीझता है या खुद पे माहिर इसका अन्वेषण कर रहें हैं.कारण अभी अज्ञात बना हुआ है ।
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को नहीं नहीं मेरा काम है घोंसला बनाना और हवा का उजाड़ना और फिर हम अपने अपने काम में जुट जाते हैं नई लगन के साथ!!! ' सर! दादा तो हैं ही.अक्सर अपने ही लोंगों कहती हूँ (और कहती ही नही ये मेरे जीवन का,मेरी सोच का केन्द्र बिंदु भी है इसे आत्म श्लाघा ना समझें)कि मेरे लिए कोई क्या कहता है,इसकी कभी परवाह करती ही नही.क्यों सब मुझे महान,बहुत अच्छा समझे?
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प्रायः यह देखा जाता है कि विजेता अपनी जीत के उन्माद में उनसे अपेक्षित स्वाभाविक गरिमा व मर्यादा को भूलकर अपने पराजित प्रतिद्वंद्वी को रास्ते की धूल समझ कर उसके काबिलियत को उचित सम्मान देने से चूक जाते हैं और विजय उपरांत आत्म प्रशस्ति व श्लाघा में व्यस्त हो जाते हैं, विशेष कर ऐसे विजेता जिन्हें उनकी प्रतिभा व भाग्यवश जीत सहज ही प्राप्त हुई हो और जिन्होंने संघर्ष की पथरीली राह की कठिनाई को नहीं झेला है ।
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हमारे अतिरिक्त और कहीं कोई कुछ नहीं कर रहा यह कहना तो उद्दण्ड आत्म श्लाघा और गर्वोक्ति ही होगी, पर तथ्यों के प्रगट रहते हुए यदि यह कहना पड़े कि प्रज्ञा अभियान ने इस या उस प्रकार से लोक मानस को झक-झोरने, नये ढंग से सोचने, नया कुछ करने के लिए ब्रह्म मुहूर्त की तरह अपनी व्यापक भूमिका निभाई है तो उसे विनम्रता की रक्षा करते हुए भी एक प्रत्यक्ष रहस्योद्घाटन की तरह बिना किसी संकोच, असमंजस एवं झिझक के यथार्थ बोध की तरह जनसाधारण के सम्मुख प्रगट किया जा सकता है।