लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है।
42.
केवल बाह्यरूप आदि ही नहीं भासता है, किन्तु मैं रूप को देखता हूँ, यों त्रिपुटीभूत ' अहम् ' अर्थ से संवलित त्वमर्थरूप प्रकाशित होता है वह साक्षिमात्रजन्य होने से स्वप्नसंसारदृष्टान्त में दार्ष्टान्तिक होता ही है।
43.
इन सबसे संवलित क्रिकेट अब एक विराट पॉपुलर कल्चर है जिसमें एक ही वक्त में क्षणिक देशभक्ति, थोड़ा भय, थोड़ा आंनद, थोड़ा खेल, थोड़ा कौतूहल, थोड़ा साहस और थोड़ी हार-जीत रहने लगी है।
44.
क्या कविता को सिर्फ़ भावों से संवलित होना चाहिये? भूख की दलील से और कुसमय से बाँसूरी कैसे अलग हो गयी? दु: ख भी तो कवि का ही गान, और उसकी बाँसूरी की तान हो सकती है।
45.
डॉ0 नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो यह भी एक विरोधाभाष ही है कि शास्त्र संवलित होकर साहित्य जिस मात्रा में सामाजिक दृष्टि से लोक-विमुक्त तथा लोक-विरोधी विचारों की ओर विचलित हो गया, काव्य-भाषा तथा काव्य-कला की दृष्टि से उसी मात्रा में समृद्धतर होता गया।
46.
जीवन के प्रत्येक आयाम को स्पर्श करके सभी उद्वागों से रहित, जो राम की तरह मर्यादित, कृष्ण की तरह सतत चैतन्य, सप्तर्षियों की तरह सतत भावगम्य अनंत तपः ऊर्जा से संवलित ऐसे सदगुरू जी का ही संन्यासी स्वरुप स्वामी योगिराज परमहंस निखिलेश्वरानंद जी हैं।
47.
क्या इसलिए, कि मेरे बौध्दिक पक्ष को या कहूं एक पक्ष को शंकर की 'प्रस्थान-त्रयी' (अभी तक सिर्फ उपनिषद्) का यह अधुनातन-आधुनिकोत्तर पुनर्भाष्य-'साहित्यिक संदर्भों से संवलित पुनर्भाष्य-चाहे जितना प्रभावित और चमत्कृत करे मेरा दूसरा पक्ष, कहूं, स्नायविक-भाविक-कल्पनाप्रवण पक्ष तो उससे अछूता-अतृप्त ही छूट जाता है।
48.
क्या इसलिए, कि मेरे बौध्दिक पक्ष को या कहूं एक पक्ष को शंकर की ' प्रस्थान-त्रयी ' (अभी तक सिर्फ उपनिषद्) का यह अधुनातन-आधुनिकोत्तर पुनर्भाष्य-' साहित्यिक संदर्भों से संवलित पुनर्भाष्य-चाहे जितना प्रभावित और चमत्कृत करे मेरा दूसरा पक्ष, कहूं, स्नायविक-भाविक-कल्पनाप्रवण पक्ष तो उससे अछूता-अतृप्त ही छूट जाता है।
49.
शंभु के वामांग का कर ही लिया तुमने हरण है पुनः अभीं अतृप्त मन से शेष को भी चाहती हो क्योंकि तेरे रूप की यह अरुणिमा प्रत्यक्ष होती प्रकट शंकर में विलोचन तीन आधा चन्द्रमा चूड़ा मुकुट में नम्र युग कुच भार से यह अरुणिमा संवलित तेरा रूप हर अर्द्धांगिनी हे! ॥ २ ३ ॥
50.
शमशेर के काव्य की आत्मा के भूगोल और इतिहास में एक नए इंसान के जन्मने की आहटें हैं, भविष्य के उस मनुष्यत के जन्म का परिवेश और उसके चेहरे मोहरे को यह आत्मा की कला इतिहास के अनुभव से समृद्ध हो, महसूस तो कर सकती है, उनका वर्णन नहीं कर सकती, सिर्फ उन्हें रंग और ध्वनि संवलित शब्दों में इंगित कर सकती है।