उन् होंनें हिन्दी कविता नई कविता कहानी उपन्यास आलोचना यात्रा संसमरण तथा अन्यान्य दिशाओं में उन्होनें विपुल कार्य किया है तथा उनके चिन्तन की गहराई से हिन्दी साहित्य को जो गरिमा और गौरवपूर्ण कृतियां प्राप्त हुई है उनका महत्व कभी कम होने वाला नही है।
42.
|यह सही है घुम्मकड़ पर जो पारिवारिक वातावरण है जो आत्मीयता है, वह मुझे अन्य यात्रा संसमरण साईट पर नहीं मिलती है |इसीलिए काफी समय तक घुमक्कड पर लेख पढ़ने के बाद मेरा मन भी लेख लिखकर इस परिवार से जुड़ने का हुआ था |
43.
पापा की सर्विस में उनकी पोस्टिंग के समय हुए कुछ रोचक (और भयावह भी) घटनाओं पर लिखे संस्मरण और मुंबई की लोकल ट्रेन के संसमरण लोगों को खूब पसंद आए.चंडीदत्त जी ने सलाह दी कि, “संस्मरण, शब्द चित्र और रेखा चित्र ” पर ज्यादा कंसंट्रेट करूँ.
44.
प्रेम साइमन की अंत्येष्टी मे मैं बहुत भारी मन से शामिल हुआ था. लेखक वहाँ नही के बराबर थे.रंगकर्मियों कि संख्या ही ज्यादा थी.इस बात पर भी लिखना ज़रूरी है.प्रेम साइमन पर लोगों से संसमरण प्राप्त करो और उसे ब्लॉग मे दो.यह भी एक श्रद्धांजली होगी.शरद कोकास
45.
(यूँ तो दो संसमरण लिखने के बाद बोरियत होने लगती है और किसी और विषय पर लिखने का मन होता है पर एक तो आजकल ब्लॉगजगत पूरी तरह होली के रंग में डूबा हुआ है और फिर इस साल यादों के सहारे ही होली गुजारनी है क्यूंकि बेटे की बोर्ड परीक्षा 4
46.
मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था-' तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा।
47.
बस्तर के दर्द को बखूबी बखान कर रही है आपकी कलम, बेहद मर्मिक चित्रण किया है आपने संसमरण में काश दिल्ली और बडे-दिल/दाढ़ी वाले ये दर्द समझेंअपनी बात सुकारू की उस तडप से आरंभ करना आवश्यक समझता हूँ जिसमें उसके मन में एसी जिन्दगी की तमन्ना थी जिसमें उसके पास सायकल, रेडियो और चटख लाल रंग की कमीज हो।
48.
कवितायें भी एक और पुस्तक जितनी हो चुकी हैं एक कैलिफोर्निया यात्रा पर संसमरण लिख रही हूँ जिसे अब अप्रैल में दोबारा वहाँ जाने के बाद पूरा करूँगी क्योंकि पिछली बार की जो फोटो वहाँ ली थी वो कैमरे से डिलीट हो गयी थी और तब मुझे इस बात का ध्यान भी नहीं था कि मैं अब लेखन मे सक्रिय रहूँगी।
49.
संस्मरण द्वारा कोई बना-बनाया निर्णय पाठकों को न थमा कर, बल्कि पाठक को एक मद्धिम आंच देता हुआ विचार नियामक सौंप दिया है आपने, इस नीति के कारण आपका यह संसमरण कोई ठोस निर्णायक उपसंहार देकर स्माप्त नहीं होता बल्कि पाठक के हिस्से यह बेचैनी छोड़ कर चुप हो जाता है कि जूते में पोलिश तो हुई पर चमक खत्म क्यों हो गई।
50.
मुझे भी याद आ गया गोदौलिया का गामा और लंका का केशव पान वाला अस्सी का पप्पू चाय वाला बेबहस के मुद्दो पर बहस करता वह चाय का प्याला-हिन्दी विभाग के रामनारायण शुक्ला काशी नाथ सिह के जापान के संसमरण पर यह तो कल था आज तो-बस ============= इतना सुन्दर लिखा है आपने कि-बस अब चुप रहने को मन करता है-