मह्रिषी दयानंद सरस्वती का तो संस्कार विधि मे लेख भी है की मृतक की अंत्येष्टि कर्म के समय सिर उतर ध्रुव की ओर ही रखें ।
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इन सभी स्थितियों में मृत्यु को सामान्य नहीं माना जाता और मृत्यु पश्चात् दाह संस्कार के लिए पुतला दाह संस्कार विधि का प्रयोग किया जाता है।
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परन्तु सोचने वालेश्य हैद्दद्दद्दद्दी बात ये है कि यदि उक्त संशोधन ऋषि ने किया था तो यह मंत्र 1902 में छपी संस्कार विधि में क्यों नही है?
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संस्कार विधि की भूमिका के अनुसार ऋषि लिखते हैं संशोधन इसिलिये किया है कि उन विषयों का यथावत् क्रमबद्ध संस्कृत के सूत्रों में प्रथम लेख किया था।
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जिनको 1902 में छपी संस्कार विधि के दर्शन करने की इच्छा हो वे सज्जन आर्य समाज विश्व बैंक कानपुर के कार्यालय में आकर प्राप्त कर सकते हैं।
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पूज्यपाद स्वामी जी ने इस पुस्तक में संस्कार विधि से उद्धृत कर ब्रह्म-यज्ञ (संध्या) के पूरे मन्त्रों के साथ उनका क्रियात्मक अर्थ भी प्रस्तुत किया है।
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‘ स्वामी दयानंद सरस्वती ' ने अपनी संस्कार विधि तथा ‘ पंडित भीमसेन शर्मा ' ने अपनी षोडश संस्कार विधि में सोलह संस्कारों का ही वर्णन किया है।
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‘ स्वामी दयानंद सरस्वती ' ने अपनी संस्कार विधि तथा ‘ पंडित भीमसेन शर्मा ' ने अपनी षोडश संस्कार विधि में सोलह संस्कारों का ही वर्णन किया है।
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उन्होंने पत्र में लिखा है कि सरकार इन सभी अस्थियों को हरिद्वार तक पहंुचाए जिसके बाद तीर्थ पुरोहित सभा उन अस्थियों को सनातन संस्कार विधि से गंगा में प्रवाहित करंेगे।
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भारतीय संस्कृति में पूजा-अर्चना, संस्कार विधि, मंगल कार्य, यात्रा गमन, शुभ कार्यों के प्रारंभ में माथे पर तिलक लगाकर उसे अक्षत से विभूषित किया जाता है।