हिंदी का अंग्रेज़ीकरण जितना बुरा है, उतना ही संस्कृतीकरण या अरबी-फारसीकरण. ये सारे ‘ करण ' सत्ताओं और स्वार्थों के खेल हैं.
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उन्हें वास्तव में शूद्र बना दिया है. संस्कृतीकरण (शाण्श्ख्षीठी़आठीऔण्) सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता की विभिन्नताप्रक्रियाओं में संस्कृतिकरण आधुनिकी-करण, पश्चिमीकरण, औद्योगीकरण, यन्त्रीकरण एवं जनतन्त्रीकरण जैसा अवधारणायें महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं.
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जैसे गतिशीलता के विश्लेषण से यह स्पष्ट हैकि संस्कृतीकरण से सम्बद्ध गतिशीलता व्यवस्था की संरचना में परिवर्तननहीं होता परन्तु सम्बद्ध व्यवस्था में पदमूलक परिवर्तन अवश्य होते हैं.
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यह कैसी प्रगतिशीलता है? ये विमर्शवादी क्यों संस्कृतीकरण का शिकार होकर साहित्य की प्रभुजातियों की तरह उनके रहन-सहन और सोच-विचार और आचरण का अनुकरण करते हैं।
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संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में किसी दलित को जो दंश झेलने पड़ते हैं, उनकी कुछ-कुछ अभिव्यक्ति हुई है, परंतु यह कहानी और ज्यादा बारीकी तथा विस्तार मांगती है.
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जैसाकि पहले ही बताया गया है, इतिहासकारों की राय है कि शैव-धर्मावलंबियों द्वारा ' तेलुगु ' शब्द का संस्कृतीकरण करके ' त्रिनग ' शब्द को प्रचार में लाया गया ।
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लेकिन इतिहासकारों का मानना है कि जब आंध्र-प्रांत में शैव-धर्म प्रचलित था, तब ' तेलुगु ' शब्द का संस्कृतीकरण करके ' त्रिलिंग ' शब्द को प्रचार में लाया गया ।
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हिन्दी के ' संस्कृतीकरण ' और राष्ट्रभाषा-पद पर स्वीकार करने के अतिरिक्त आर्य समाज ने हिन्दी गद्य को एक नयी शैली प्रदान की, जो शास्त्रार्थ और खण्डन-मण्डन के उपयुक्त थी।
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भक्तिकाव्य और भक्ति आन्दोलन के विकास में ‘ संस्कृतीकरण ' (श्रीनिवासन की सामाजिक विश्लेषण की अवधारण) की प्रक्रिया के महत्व को जब तक तरजीह न दी जाय बात को पूरी तरह समझना कठिन है।
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उस अवधारणा का प्रासार्य पूरी गाँव की देसज सभ्यता में जब तक नहीं होता तब तक भारतीय ग्राम्य संरचना, उसका संस्कृतीकरण और मानवीकरण नहीं हो सकता और इस अभाव में स्थानिकता, विकास व पर्यावरण, सबको हानि पहुँचेगी।