प्रतीकात्मक तौर पर वो भले ही दुनिया में सर्वव्याप्त बुराइयों की नासमझ मुक्तिदाता मानी जाये किन्तु … मेरा ख्याल ये है कि पंडोरा का सुबकना, दुनिया में सर्वव्याप्त बुराइयों की तुलना में ‘ आशा ' के मुक्त अस्तित्व और पंडोरा के प्रति उसके कृतज्ञता ज्ञापन पर ठिठक / ठहर जाना चाहिये!
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पिछ्वाडे है अमुआ बोराया आंगन की तुलसी पर नूर आया धूप की आमद पर्दों ने की बंद चूं चूं है किवाडों की दीवारों ने सुबकना छोड दिया छत ने चुप्पी से नाता तोड दिया बोलता अब हर साया है घर लौट के वो आया है बहुत खूब एक एक शब्द जैसे आँखों के आगे घूम घूम कर जाने क्या क्या याद दिला गया. सच ऐसा ही होता है जब कोई चिर प्रतीक्षित घर या अपने मन में उतर जाता है आभार