इसके अतिरिक्त मरण आदि अवस्थाओं का भी अभाव हो जाना चाहिए ।
3.
तब उस अवस्था में इस प्रतीयमान अखिल जड़ जगत् का नितान्त अभाव हो जाना चाहिए।
4.
इस मंत्र का प्रतिपाद्य विषय हमारे मध्य पारस्परिक फूट का नितांत अभाव हो जाना है।
5.
‘‘ मनुष्य के ज्ञान से जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ही परम वैराग्य है।
6.
ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव हो जाना, वेषभूषा केवल दिखावे के ही लिये हो कि वे ईश्वर के भक्त हैं:
7.
वैराग्य का अर्थ है सांसारिक विषय-भोग अच्छे नहीं लगना, उनमें आसक्ति का अत्यंत अभाव हो जाना और आत्मा का अपने स्वरुप में स्थित हो जाना.
8.
इस विवेकसे जो असत्, असार, हेय और अकर्तव्यका मनसे परित्याग है अर्थात् इनके प्रति मनके रागका जो अभाव हो जाना है, उसको विचारसे होनेवाला वैराग्य कहते हैं ।
9.
प्रपञ्चमरणाद्यभावश्च ॥ 3 / 21 ॥ और समस्त जड़ जगत् का मरण आदि का अभाव हो जाना चाहिए (यदि भूत भौतिक को चेतन माना जाए) ॥ 3 / 21 ॥
10.
ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव हो जाना, वेषभूषा केवल दिखावे के ही लिये हो कि वे ईश्वर के भक्त हैं: 9. धर्म के नाम पर अधर्म करना-धर्मसे-हीनता और अधर्म से अनुराग।