अकलंक वाक्य
उच्चारण: [ akelnek ]
"अकलंक" अंग्रेज़ी में"अकलंक" का अर्थउदाहरण वाक्य
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- सूक्ष्मदृष्टि अकलंक इस समग्र स्थिति का अध्ययन किया तथा सभी दर्शनों का गहरा एवं सूक्ष्म अभ्यास किया।
- किन्तु जैन न्याय में जो सुव्यवस्था और सुदृढ़ता देखी जाती है, उसका श्रेय अकलंक को ही है।
- किसी तरह अकलंक की जान तो बच गई, लेकिन निष्कलंक को प्राणदण्ड से मुक्ति न मिल सकी।
- आचार्य अकलंक के लघीयस्त्रय और आचार्य विद्यानंद की आप्तपरीक्षा आदि ग्रंन्थों के विपुल प्रमाण इसमें उन्होंने दिए हैं।
- न्याय-विनिश्चय ' में अकलंक ने कहा है कि साधन से साध्य के विषय में ज्ञान प्राप्त करना अनुमान है।
- अनुमान के कई अवयव माने गये हैं, किन्तु अकलंक ने केवल प्रतिज्ञा और हेतु को ही पर्याप्त माना है।
- इसी कारण ' सिद्धेर्वात्राकलंकस्य महतो न्यायवेदिन: [1] वचनों द्वारा अकलंक को ' महान्यायवेत्ता ' जस्टिक-न्यायधीश कहा है।
- अकलंक ने भर्तृहरि, कुमारिल, धर्मकीर्ति और उनके अनेक टीकाकारों के मतों की समालोचना करके जैन न्याय को सुप्रतिष्ठित किया है।
- इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
- युद्ध क्षेत्र में देवी का रौद्र रूप देखते ही बनता था आकाश में सूर्य का अकलंक तेज चारों तरफ भासमान था।
- समन्तभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं *:-
- ' अकलंक ने स्याद्वाद पर किये गये धर्मकीर्ति के आक्षेप का ' सेर को सवा सेर ' जैसा सबल उत्तर दिया है।
- सप्तभंगी के प्रतिपादन में प्रमाणसप्तभंगी तथा नयसप्तभंगी के लिए क्रमश: सकलादेश और विकलादेश की योजना अकलंक के द्वारा ही बनाई गई है।
- इसी से तत्वार्थसूत्र के टीकाकार समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द आदि मुनियों ने बड़े ही श्रद्धापूर्ण शब्दों में इनका उल्लेख किया।
- प्रत्यक्ष ज्ञान की अस्पष्टता पर बल देने के लिए अकलंक ने ' साकार ' और ' अञ्जासा ' पदों का व्यवहार किया है।
- अकलंक के पहले के आचार्यों ने जो भूमिका तैयार की थी, उसके आधार पर उन्होंने जैन न्याय का एक भव्य प्रासाद खड़ा किया।
- यह वह संग्राम है जिसमें एक चूक भी अक्षम्य होती है, इसमें वे ही हाथ बँटा सकते हैं जो सर्वथा अकलंक हो... '
- कुछ ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित हुई जो आगे कुंदकुंद, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानंद, हरिभद्र, यशोविजय, आदि रुप में विकशीत होती गयी।
- अत: अकलंक को जैन दर्शन और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रतिष्ठाता और इसीलिये उनके इस काल को ' अकलंककाल ' कहा जा सकता है।
- साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।
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