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उमास्वामी वाक्य

उच्चारण: [ umaasevaami ]
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  • इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं।
  • इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात् एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं।
  • स्थाणुमन्ये%नुसयति यथाकर्म यथाश्रुतम् (2-27)“ इस श्रुति से एवं श्रीमद्भागवत के ”अण्डेषु पेशिष तरुष्वनिश्चितेषु प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र (11-3-39)“ इस श्लोक से तथा श्री उमास्वामी के तत्वार्थाधिगमसूत्र (2-22) के ”वनस्पत्यन्तानामेकम्” इस वाक्य से विदित होता है, भारतीय आस्तिक विचारक तथा जैन दार्शनिक दोनों ही वनस्पत्यादि स्थावर तथा पृथिवी आदि जंगम जड़ पदार्थों में भी आत्मा का अस्तित्व मानते रहे हैं।
  • श्रवणबेलगोल के २५८ वें शिलालेख में भी यही बात कही गई है उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई उसी मुनि रत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए उन्हीं के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामी मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे।
  • श्रवणबेलगोल के २ ५ ८ वें शिलालेख में भी यही बात कही गई है उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूप रत्नों की माला प्रकट हुई उसी मुनि रत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध ओजस्वी आचार्य हुए उन्हीं के पवित्र वंश में समस्त पदार्थों के ज्ञाता उमास्वामी मुनि हुए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे।
  • जैसा कठोपनिषद “ योनिमन्ये प्रपद्यंते शरीरत्वाय देहिन: स्थाणुमन्येऽनुसयति यथाकर्म यथाश्रुतम् ” (2-27) इस श्रुति से एवं श्रीमद्भागवत के “ अण्डेषु पेशिष तरुष्वनिश्चितेषु प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र (11-3-39) ” इस श्लोक से तथा श्री उमास्वामी के तत्वार्थाधिगमसूत्र (2-22) के “ वनस्पत्यन्तानामेकम् ” इस वाक्य से विदित होता है, भारतीय आस्तिक विचारक तथा जैन दार्शनिक दोनों ही वनस्पत्यादि स्थावर तथा पृथिवी आदि जंगम जड़ पदार्थों में भी आत्मा का अस्तित्व मानते रहे हैं।
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