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चित्तं वाक्य

उच्चारण: [ chitetn ]
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  • यौगिक ग्रंथों का मानना है कि “ चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् ”, अर्थात प्राणवायु तेज़ हो तो मन तेज़ होता है और प्राणवायु शांत हो तो मन शांत होता है।
  • (विनियतं चित्तं), आत्मा में स्थित हो, जब वह वायुशून्य स्थान में स्थित दीपशिखा के समान अचल होकर अपने सभी चंचल कर्म करना बंद कर दे एवं अपनी बहिर्मुखी वृत्तियों को अंदर खींच ले।
  • इस श्लोक में एक तो “ विनियतं चित्तं ' ' से आगे की बात कही गई है-‘‘ उपरमते चित्तं ”-चित्त उपराम हो जाता है-किसी भी प्रकार के भोगपरक विषयादि उसे स्पर्श नहीं कर पाते।
  • इस श्लोक में एक तो “ विनियतं चित्तं ' ' से आगे की बात कही गई है-‘‘ उपरमते चित्तं ”-चित्त उपराम हो जाता है-किसी भी प्रकार के भोगपरक विषयादि उसे स्पर्श नहीं कर पाते।
  • भगवान कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १२ (भक्ति योग) के श्लोक ९ में कहते हैं अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषी मयि स्थिरम अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुम धनञ्जय यदि तू अपने मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन!
  • योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ भावार्थ: जिस प्रकार वायुरहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गई है॥ 19 ॥ यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
  • निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ भावार्थ: मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥ 8 ॥ अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
  • नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥ २ ७ ॥ भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥ २ ७ ॥
  • यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥ १ ९ ॥ कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥ १ ९ ॥
  • न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति ॥ २ ॥ तब मुक्ति है जब मन इच्छा नहीं करता है, शोक नहीं करता है, त्याग नहीं करता है, ग्रहण नहीं करता है, प्रसन्न नहीं होता है या क्रोधित नहीं होता है ॥ २ ॥ तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु।
  • किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् हृष्यति कुप्यति ॥ १ ॥ श्री अष्टावक्र कहते हैं-तब बंधन है जब मन इच्छा करता है, शोक करता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, कभी प्रसन्न होता है या कभी क्रोधित होता है ॥ १ ॥ तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।
  • प्रियं पुत्रादि यत्प्रीत्या तस्मै श्री गुरवे नमः॥ ३ ७ ॥ जिनके सत्य पर अवस्थित होकर यह जगत् सत्य प्रतिभासित होता है, जो सूर्य की भाँति सभी को प्रकाशित करते हैं, जिनके प्रेम के कारण ही पुत्र आदि सभी सम्बन्ध प्रीतिकर लगते हैं, उन सद्गुरु को नमन है॥ ३ ७ ॥ येन चेतयते हीदं चित्तं चेतयते न यम्।
  • मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान शस्त्र और शास्त्र दोनों के धनी श्री गुरू गोविन्द सिंह जी भी सुस्पष्ट शब्दों में कहते हैं:-सबै मंत्रहीनं सबै अंत कालं भजो एक चित्तं सुकालं कृपालं 'जब अंत समय आता है तो सभी मंत्र निष्फल हो जाते हैं, इसीलिए मन लगाकर कृपा सिंधु प्रभु का भजन करो.'
  • नाहं चित्तं शोक मोहौ कुतो मे, नाहं कर्ता बंध मोक्षौ कुतो मे॥ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, फिर मेरा जन्म-मृत्यु कैसे? मैं प्राण नहीं हूँ, फिर भूख-प्यास मुझे कैसी? मैं चित्त नहीं हूँ, फिर मुझे शोक-मोह कैसे? मैं कर्ता नहीं हूँ, फिर मेरा बन्ध-मोक्ष कैसे? जब वह समझ जाता है कि मैं क्या हूँ तब उसे वास्तविक ज्ञान हो जाता है और सब पदार्थों का रूप ठीक से देखकर उसका उचित उपयोग कर सकता है ।
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