दीर्घसूत्रता वाक्य
उच्चारण: [ direghesutertaa ]
उदाहरण वाक्य
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- इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है।
- 5. दीर्घसूत्रता-हर काम को निश्चित समय में पूरा करना सफलता के लिए जरूरी है अगर अनावश्यक रूप से ज्यादा समय काम को पूरा होने में लगता है तो उस काम के फल को काल चाट जाता है।
- कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निर्णय न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है ।।
- हिन्दी में भावार्थ-जिन मनुष्यों को जीवन में विकास करना है उनके नींद, तन्द्रा (बैठे बैठे सोना या ऊंधना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घसूत्रता (थोड़ समय में होने वाले काम पर अधिक देर लगाना) जैसे छह गुणों से परे होना चाहिये।
- इतना ही नहीं आगम-निगम, पुराणों में तो जिस तरह की अलिफ़ लेलाई किस्म की कथात्मकता में ज्ञानामृत छिपाया गया हैउसके नकारात्मक पहलु न केवल दीर्घसूत्रता में आये हैं अपितु समाज के श्रमिक, सर्वहारा और कामगार नर-नारियों को उससे महरूम रखने के क्षेपक भी घुसेड़े गए हैं.
- इसलिए मैं यही कहना चाहती हूँ कि यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम, और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिये-“ आज ही क्यों नहीं? ”
- इसके मायने क्या है? तो उन आदरणीय पाठकों की जानकारी हेतु बता दूं कि सम्बदिया का मतलब होता है एलची, खबरची, दूत, सम्वाद वाहक / महान कथाकार फ़णीश्वर नाथ “ रेणु ” की एक प्रख्यात कहानी का नाम भी है / सम्वदिया दोबारा शुरू करने की ललक काफ़ी दिनो से मन में थी मगर बस आलस्य और दीर्घसूत्रता के कारण काम हो ही नहीं पा रहा था..
- आत्मोन्नति के लिये किये गए प्रयास कर्तव्य कर्म हैं, तथा आत्मोन्नति में जो कर्म बाधक बनते हैं वे अकर्तव्य हैं | चोरी, व्यभिचार, झूठ, कपट, हिंसा, अभक्ष्य भोजन, प्रमाद, आसक्ति, द्वेष, लोभ, भय, दम्भ, पराधीनता, दीर्घसूत्रता, अकर्मण्यता, माता पिता व गुरुजनों की अवहेलना, दूसरों की निन्दा स्तुति, प्रतिष्ठा की कामना-ये सभी आत्मोन्नति में बाधक होने के कारण निषिद्ध कर्म हैं, अकर्तव्य हैं |
- 3. नास्तिकता, असत्य भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानी पुरुषों का संग न करना, आलस्य, नेत्र अति पांचों इंद्रियों के वशीभूत होना, राजकार्यों में अकेले ही विचार, प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूर्खों से सलाह लेना, निश्चित किये हुए कार्यो का शीघ्र प्रारंभ न करना, गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना, मांगलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ आक्रमण करना-यह राजा के चैदह दोष हैं।
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