पुरुषसूक्त वाक्य
उच्चारण: [ purusesuket ]
उदाहरण वाक्य
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- पुरुषसूक्त की तो बात ही करना बेकार है क्योंकि यह एक क्षेपक है और क्षेपक हमेशा स्वार्थी तत्वों के द्वारा जोड़े जाते हैं.
- * ऋग्वेद के पुरुषसूक्त (10.90) में वर्णों के चार विभाजन के सन्दर्भ में इसका जाति के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
- बाद में जोड़ गये दशम मंडल, जिसे ‘ पुरुषसूक्त ‘ के नाम से जाना जाता है, में सर्वप्रथम शूद्रों का उल्लेख मिलता है।
- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
- इस महीनें में गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, शतरूद्रिपाठ और पुरुषसूक्त का पाठ एवं पंचाक्षर, षडाक्षर आदि शिव मंत्रों व नामों का जप विशेष फल देने वाला हैं।
- ऋग्वेद के पुरुषसूक्त ने स्पष्ट कहा कि “ब्राह्मण परमात्मा के मुख से, क्षत्रिय उस कि भुजाओं से, वैश्य उस के उरू से तथा शूद्र उस के पैरों से पैदा हुए.”
- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के पुरुषसूक्त के अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), जंघाओं से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।
- अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४-ऋचा १०४)।
- ऋग्वेद के पुरुषसूक्त ने स्पष्ट कहा कि “ ब्राह्मण परमात्मा के मुख से, क्षत्रिय उस कि भुजाओं से, वैश्य उस के उरू से तथा शूद्र उस के पैरों से पैदा हु ए. ”
- अन्य जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया) में चार वर्णों के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४-ऋचा १ ० ४) ।
- कुछ विद्वान कहते हैं कि हमें सभी प्रश्नों के सर्वमान्य उत्तर नहीं मिलेंगे! यह कथन एक तरह से ऋग्वेद के उपरोक्त पुरुषसूक्त (10 / 7 / 90) के कथन को ही स्वीकार-सा करता लगता है।
- दीर्घतमा मामतेय जैसे कुछ महाकवियों के ‘ अस्य वामीय ' सरीखे कुछ सूक्तों में उसका विकास भी हो रहा था, पर जिसका वास्तविक विकास, वेदों के सन्दर्भ में, पांच हजार साल पहले हुए कृष्ण के समय के आसपास हुआ, जब पुरुषसूक्त, कालसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, सृष्टिसूक्त जैसे विशिष्ट दार्शनिक सूक्तों की रचना हुई।
- अगर इस आस्था की प्राचीनता के बेबुनियाद दावों को हम स्वीकार कर भी लें, तो इस सवाल से तो नहीं बचा जा सकता कि क्या हमारी न्यायिक प्रक्रिया ऐसी आस्थाओं से संचालित होगी या संवैधानिक उसूलों से? तब फिर उस हिंदू आस्था के साथ क्या सलूक करेंगे जिसका आदिस्रोत ऋग्वेद का ‘ पुरुषसूक्त ' है और जिसके अनुसार ऊंच-नीच के संबंध में बंधे अलग-अलग वर्ण ब्रह्मा के अलग-अलग अंगों से निकले हैं और इसीलिए उनकी पारम्परिक ग़ैरबराबरी जायज़ है?
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