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भट्टनायक वाक्य

उच्चारण: [ bhettenaayek ]
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  • भट्टनायक (10 वीं शती ई.) ने सत्वोद्रैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा, अभिनवगुप्त (11 वीं शती ई.)
  • आचार्य भट्टनायक ने सांख्य-दर्शन के आधार पर रसानुभूति के जिस मार्ग को प्रतिपादित किया उसे भारतीय कावय्शास्त्र में भुक्तिवाद कहा गया।
  • आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित ‘ रससूत्र ' पर टीकाएं लिखकर आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि ने रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की।
  • इसके अतिरिक्त भट्टोद्भट, भट्टलोल्लट, भट्टशंकुक भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कीर्तिधर, राहुल, भट्टयंत्र और हर्षवार्तिक जैसे उद्भट आचार्यों ने नाट्यशास्त्र पर टीकाएँ लिखीं।
  • 278 रस को आनंद स्वरूप मानने वाले तथा अभिव्यक्तिवाद के संस्थापक है-अभिनव गुप्त 279 भट्टनायक ने किस रस सिध्दांत की स्थापना की-भुक्तिवाद की।
  • भारत में रस सिध्दांत के प्रमुख आचार्यों में भरत मुनि, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, भोजराज, विश्वनाथ, जगन्नाथ, रामचन्द्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी एवं नगेन्द्र की गणना की जा सकती है।
  • सांख्य दर्शन के आधार पर भट्टनायक ने कहा है कि हमारी आत्मा का स्वाभाविक गुण ही आनन्द है, किन्तु रजोगुण एवं तमोगुण के प्रभाव से यह आनन्द का गुण लुप्त या आवृत हो जाता है।
  • आचार्य जयरथ द्वारा आचार्य रुय्यक के ‘अलंकारसर्वस्व ' की टीका मे तथा आचार्य हेमचन्द्र द्वारा अपने ‘काव्यनुशासनविवेक' नामक टीका में आचार्य भट्टनायक के उक्त सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले दो श्लोकों उद्धृत किया गया है, जो निम्नवत हैं-
  • काव्य अथवा नाटक में अभिधा तथा लक्षणा से भिन्न विभावादि के साधारणीकरण-स्वरूप भावकत्व नामक व्यापार से साधारणीकृत स्थायिभाव सत्त्वोद्रेक से प्रकाश और आनन्दमय अनुभूति की स्थिति के समान संविदविश्रान्तियुक्त (अपना बोध होश की विश्रांति) होने से भोग द्वारा आस्वाद्य होता है, ऐसा मत आचार्य भट्टनायक का है।
  • अलंकारसर्वस्व की प्रस्तावना में रुय्यक ने भामह, उद्भट, रुद्रट आदि के अलंकारप्राधान्यवाद में तथा वामन के रीतिवाद में ध्वनि के बीज बताते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि भट्टनायक के भावना तथा भोग नामक काव्यव्यापारों में कुंतक की वक्रोक्ति तथा महिमभट्ट के 'अनुमान' में ध्वनि का अंतर्भाव संभव नहीं है।
  • आचार्य भट्टोद्भट ||, || 8. आचार्य वामन ||, || 9. आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट ||, || 10. आचार्य आनन्दवर्धन ||, || 11. आचार्य भट्टनायक ||, || 12. आचार्य मुकुलभट्ट और आचार्य धनञ्जय ||, || 13. आचार्य अभिनव गुप्त ||, || 14. आचार्य राजशेखर ||, || 15. आचार्य कुन्तक और आचार्य महिमभट्ट ||, ||16. आचार्य क्षेमेन्द्र और आचार्य भोजराज ||, ||17. आचार्य मम्मट ||, ||18. आचार्य सागरनन्दी एवं आचार्य (राजानक) रुय्यक (रुचक) ||
  • दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आचार्य भट्टनायक के अनुसार शब्द के अभिधा व्यापार से दर्शक अर्थ समझता है और अपने सम्मुख प्रस्तुत प्रसंगों की विशेष स्थिति का ज्ञान करता है, भावकत्व व्यापार से विभावादि का साधारणीकरण होता है जिससे भावों का पात्रगत-बोध समाप्त हो जाता है तथा दर्शक की मनोवृत्ति या वासना प्रस्तुत विभावादि के कारण निर्वैयक्तिक हो जाती है, अर्थात आलम्बन और उद्दीपन का दर्शक या पाठक की व्यक्तिगत अनुभूति से तादात्म्य होने से उसकी वैयक्तिक भावना समाप्त हो जाती है।
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