सायणाचार्य वाक्य
उच्चारण: [ saayenaachaarey ]
उदाहरण वाक्य
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- प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले तो वृषभ और केशी का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है।
- प्रतीत होता है कि लगभग पच्चीस वर्षों में सायणाचार्य ने वेदों के भाष्य प्रणीत किए (वि. सं. 1420-वि. सं.
- निघण्टु और निरूक्त की विषय साम्यता देख सायणाचार्य ने अपने ' ऋग्वेद भाष्य' में निघण्टु को ही निरूक्त माना है।
- प्रतीत होता है कि लगभग पच्चीस वर्षों में सायणाचार्य ने वेदों के भाष्य प्रणीत किए (वि. सं. 1420-वि. सं.
- ऐतरेय ब्राह्मण के इस अंश पर भाष्य करते हुए एक पुराने विद्वान भाष्यकार, सायणाचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है:
- सायणाचार्य के अनुसार इसका मतलब हैᄉ ÷बिना मुंह के ' ये दो अर्थ पद विच्छेद के कारण हुए यथा अन+आस तथा अ+नास।
- निघण्टु और निरुक्त की विषय साम्यता देख सायणाचार्य ने अपने ' ऋग्वेद भाष्य ' में निघण्टु को ही निरुक्त माना है।
- इसके विषय में वेद के महापण्डित सायणाचार्य अपने वेद भाष्य में लिखते हैं-यस्य नि: श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्।
- सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में लिखा है कि ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन अनुष्ठेय यज्ञ के उचित काल का संशोधन करना है।
- सायणाचार्य ने ऋग्वेद भाष्य भूमिका में लिखा है कि ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन अनुष्ठेय यज्ञ के उचित काल का संशोधन करना है।
- सायणाचार्य के इन विचारों का समर्थन पाश्चात्य वेद विद्वान प्रो 0 विल्सन, प्रो 0 मैक्समूलर आदि ने अपने पुस्तकों में किया है।
- इसी सूक्त के प्रथम मन्त्र की व्याख्या में सायणाचार्य ने लिखा है-ब्रह्मणि वेदात्मके अध्येतव्ये वा चरितुं शीलमस्य स तथोक्त: ।
- मनु की पुत्री ‘इडा ' का वर्णन करते हुए तैत्तिरीय 1-1-4 में उसे ‘यज्ञान्काशिनी' बताया है यज्ञान्काशीनी का अर्थ सायणाचार्य ने ‘यज्ञ तत्त्व प्रकाशन समर्था'
- महर्षि सायणाचार्य के अनुसार लोहे के कुठार को अग्नि में गरम करके पानी में बुझा कर उससे शीत ज्वर के रोगी का सिंचन किया जाना चाहिए।
- आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं।
- अतएव इन मंत्रों का देवता कृषि ही है, जैसा कि अनुक्रमणिका लिखते हुए सायणाचार्य ने कह दिया है कि-' सप्तमीत्रयोदशी च कृषिं स्तौति अतस्तयो:
- प्रतीत होता है कि लगभग पच्चीस वर्षों में सायणाचार्य ने वेदों के भाष्य प्रणीत किए (वि. सं. 1420-वि. सं. 1444) ।
- वेदों का मूल अध्ययन भले सिंधु और गंगा के किनारे हुआ हो, परन्तु उनका यथार्थ सादर रक्षण तो सायणाचार्य के समय से तुंगभद्रा के ही किनारे हुआ है।
- आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं।
- केशी का अर्थ केशधारी होता है, जिसका अर्थ सायणाचार्य ने ‘ केश स्थानीय रश्मियों को धारण करनेवाले ' किया है, और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है।
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