कविता के नए प्रतिमान वाक्य
उच्चारण: [ kevitaa k n pertimaan ]
उदाहरण वाक्य
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- एक जमाना था जब उन्होंने आलोचना में कुछ करने, कहने और लिखने की कोशिश की थी यानी “ कविता के नए प्रतिमान ” और “ दूसरी परंपरा की खोज ” का जमाना ।
- कविता के नए प्रतिमान ' के दूसरे संस्करण (१ ९ ७ ४) की भूमिका में नामवर सिंह ने जेरेमी हौथौर्ण की पुस्तक (' Identiti and relationship ') का उल्लेख इसी सन्दर्भ में किया है.
- इसी लेख में अन्यत्र वे सवाल उठाते हैं की “ क्या यह सही नहीं है कि नामवर सिंह ने ‘ कविता के नए प्रतिमान ' में सामयिक इतिहास की मूल लाक्षणिक विशेषता की प्रायः अवहेलना कर दी है? ऐसा दृष्टिकोण क्या संयोंगवश अपनाया गया है?
- ‘ कविता के नए प्रतिमान ' का परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से मुक्तिबोध हैं लेकिन ‘ परिवेश और मूल्य ' में जिस इतिहास को दिखाने की कोशिश नामवर सिंह कर रहे थे, वह उन्हीं के शब्दों में अपूर्ण है और जिसकी क्षतिपूर्ति ‘ अंधेरे में पुनश्च ' नामक अध्याय भी नहीं कर पाया।
- डॉ॰ चौधरी ने लिखा कि नामवर सिंह की इस पुस्तक में ‘‘ विवाद शैली के आतंक में इतिहास का परिप्रेक्ष्य डूबता नजर आता है … ‘ कविता के नए प्रतिमान ' में जो सबसे बड़ा दोष है, वह परिप्रेक्ष्य के खो जाने का नहीं है, इतिहास के अदृश्य रह जाने का है।
- मसलन, एक जगह कविता के नए प्रतिमान को उन्होंने आलोचना की चार प्रमुख पुस्तकों में शुमार किया है, जब कि दूसरी जगह यह कहते हुए इसकी धज्जियां बिखेर दी हैं कि शीतयुद्ध की बासी और व्यर्थ हो चुकी भाषा तथा अमेरिकी नव समीक्षकों की उधार ली हुई पदावली के सिवा इसमें क्या है।
- 1970 में जब ‘ कविता के नए प्रतिमान: विसंगति और विडंबना का सौन्दर्यशास्त्र ' शीर्षक आलेख में डॉ॰ चौधरी ने ‘ कविता के नए प्रतिमान ' की समीक्षा की तो फिर से अपनी पुरानी धारणा का ही समर्थन करते हुए लिखा-‘‘ पत्रकार की नाटकीय आत्मीयता में सबकुछ एक ‘ मैं ' के अधीन होता है।
- 1970 में जब ‘ कविता के नए प्रतिमान: विसंगति और विडंबना का सौन्दर्यशास्त्र ' शीर्षक आलेख में डॉ॰ चौधरी ने ‘ कविता के नए प्रतिमान ' की समीक्षा की तो फिर से अपनी पुरानी धारणा का ही समर्थन करते हुए लिखा-‘‘ पत्रकार की नाटकीय आत्मीयता में सबकुछ एक ‘ मैं ' के अधीन होता है।
- काश, किसी दिए से निकला कोई जिन्न हिंदी में नए सिरे से साहित्य की उसी संस्कृति को एक बार फिर प्रतिष्ठित कर देता, जो नामवर सिंह की लिखी दो किताबों-' कविता के नए प्रतिमान ' और ' दूसरी परंपरा की खोज '-की शक्ल में इतनी आसानी से हमें खुद में समाहित कर लेती है।
- रघुवीर सहाय, राजकमल चौधरी, धूमिल, विजयदेव नारायण साही, केदार नाथ सिंह जैसे तमाम गैर-मार्क्सवादी ही नहीं अपितु मार्क्सवाद-विरोधी कवि ‘ कविता के नए प्रतिमान ' से लेकर अस्सी के दशक के स्वघोषित चौबीस कैरेट शुद्ध वामपंथी कवियों / आलोचकों के प्रिय रहे और हिन्दी के सत्ता केन्द्र के नाभिक में उनकी उपस्थिति निरंतर बनी रही.
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