इसी संदर्भ में विजयकुमार ने चेतना के ' पदार्थीकरण '(कमौडिटीफिकेशन) की बात कही है।
2.
या यूं कहें कि उनका पदार्थीकरण हो रहा है या फिर वे संन्यास ले चुके हैं;
3.
पार्थिव सरोकारों और पदार्थीकरण के इस कदर बढ़ते दबाव के समय में भारतीय तत्व-दर्शन-चिंतन और विचार की ओर मुड़ने एवं जुड़ने की आवश्यकता तो है ही इस दिशा में यह उपन्यास एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।
4.
जीवंत मनुष्य की चेतना का बाज़ार जितनी तेज़ी से ' पदार्थीकरण ' (कमोडीफिकेशन) कर रहा है उस सच को क्या कहेंगे आप? पिछली पीढी के किस कवि ने इस भयावह स्थिति को देखा था? किसी भी समाज में जीवनयापन की प्रणालियां विभिन्न घटकों के आपसी तालमेल से बनी होती हैं, जिनमें भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक सभी परिवेश एक दूसरे में घुले-मिले रहते हैं।