उदाहरण के लिए, व्यवहार में संयम व आत्म-नियंत्रण के अभाव का पित्तप्रकृति (कोपशील) स्वभाव से संबंध होना अनिवार्य नहीं है।
12.
हर पित्तप्रकृति (कोपशील) मनुष्य अपने निश्चय पर अड़िग नहीं रहता और न हर रक्तप्रकृति (प्रफुल्लस्वभाव) मनुष्य सह्रदय होता है।
13.
सभी तथ्य यह बताते हैं कि अमित का तंत्रिका-तंत्र प्रबल असंतुलित की श्रेणी में आता है और उसके स्वभाव में पित्तप्रकृति (कोपशीलता) का प्राधान्य है।
14.
बृहत्पराशर होराशास्त्र के अनुसार-क्रूरो रक्तेक्षणो भौमश्चपलादारमूर्तिकः पित्तप्रकृतिकः क्रोधी कृशमध्यतनुद्र्विज अर्थात मंगल क्रूर, रक्त नेत्र, चंचल, पित्तप्रकृति, क्रोधी, कृश और मध्यम देह का स्वामी है।
15.
ये चार प्रकार के स्वभाव इस प्रकार थे: रक्तप्रकृति (प्रफुल्लस्वभाव, उत्साही), श्लैष्मिक प्रकृति (शीतस्वभाव), पित्तप्रकृति (कोपशील) और वातप्रकृति (विषादी) ।
16.
इसके विपरीत पित्तप्रकृति (कोपशील) व्यक्ति की विशेषताएं उर्जा का उफान, काम के प्रति घोर लगन, कर्मठता, सहज ही भावावेश में आ जाना, मनोदशा में एकाएक परिवर्तन और असंयत चेष्टाएं हैं।
17.
उदाहरण के लिए, उन मामलों में पित्तप्रकृति (कोपशील) मनुष्य की सक्रियता तब अधिक कारगर सिद्ध होती है, जब वह किसी श्लैष्मिक प्रकृति (शीतस्वभाव) या वातप्रकृति (विषादी) व्यक्ति के साथ मिलकर काम करता है।
18.
प्रबल संतुलित सफूर्तिशील प्रकार की तंत्रिका-सक्रियता का संबंध रक्तप्रकृति (उत्साही स्वभाव) से है, प्रबल संतुलित मंद तंत्रिका-सक्रियता का श्लैष्मिक प्रकृति (शीत स्वभाव) से, प्रबल अंसतुलित प्रकार का पित्तप्रकृति (कोपशील स्वभाव) से और दुर्बल प्रकार का वातप्रकृति (विषादी स्वभाव) से है।
19.
पित्तप्रकृति व्यक्ति की उर्जा और कर्मशक्ति यदि उचित लक्ष्यों की ओर उन्मुख हों, तो वे मूल्यवान गुण हो सकती हैं, किंतु उसका संवेगात्मक तथा गतिशीलता संबंधी असंतुलन पालन की कमियों के साथ मिलकर अपने को उच्छॄंखलता, उद्दंड़ता तथा आपे से बाहर होने की स्थायी प्रवृत्ति में व्यक्त कर सकते हैं।