अन्यथा `मैं जानता हूं कि मैंदुःखी हूं ' में प्रकट प्रेक्षकभाव प्रेक्ष्य दुःख के साथ सापेक्षअवस्थिति में ही सन्तुष्ट हो जाना चाहिए था, अथवा वास्तव में इससम्मुखीनता या उद्भन्नता की भी आवश्यकता नहीं थी, दुःखिता अपने-आप मेंपर्याप्त थी.
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किन्तु यहां आपत्ति की जाएगी कि ज्ञान स्थिति `मैं दुःखी हूं ' अथवा` यहघट है' प्रकार से निरूपति होती है, जिसमें दुःख-विशिष्ट `मैं 'अथवाघट-विशिष्ट` यह' प्रेक्ष्य रूप में इन अध्यवसायों में अप्रकट याअनिर्दिष्ट प्रेक्षक को प्रस्तुत होते हैं.
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प्रेक्षक इनमें निर्दिष्टनहीं होता क्योंकि वह निर्दिष्ट हो तो नहीं सकता, क्योंकि वह निर्दिष्टहोते ही प्रेक्ष्य हो जाता हैः वह केवल प्रेक्ष्य के माध्यम से, उसकीअपेक्षा से, उद्भासित होता है, और इस प्रेक्षक के बिना उसकी अपनी कोईस्थिति नहीं होती.
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प्रेक्षक इनमें निर्दिष्टनहीं होता क्योंकि वह निर्दिष्ट हो तो नहीं सकता, क्योंकि वह निर्दिष्टहोते ही प्रेक्ष्य हो जाता हैः वह केवल प्रेक्ष्य के माध्यम से, उसकीअपेक्षा से, उद्भासित होता है, और इस प्रेक्षक के बिना उसकी अपनी कोईस्थिति नहीं होती.
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इस परि प्रेक्ष्य में ‘ नौज्यूला की आराघ्य देवी मां जगदी के संबंध में अधि क से अधि क एवं प्रमाणिक सामग्री को एकत्रित कर पुस्तक प्रकाशित करना निश्चित ही लेखक की अपनी परम्परा व इतिहास के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
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यहदुःखिता मनःस्थिति होने से स्व-विदित होती है इसे विदित होने के लिए किसीअन्य अधिष्ठान की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए आत्मा-प्रसंग प्रेक्षकत्वयहां संवेदनात्मक या संज्ञानात्मक नहीं होकर आत्म-~ निवर्तनात्मक होता हैऔर इस निवर्तन में ही यह प्रेक्ष्य या विषय को भी अपने में अधिष्ठित करताहै.
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ऐसा नहीं है कि कल दुःख में समय यहआकार उद्गृहीत नहीं था, प्रेक्षकत्व का यह अनिवार्य स्वभाव है कि यह आकारही को प्रेक्ष्य बनाता है और इस प्रकार यह स्वयं मनःस्थिति को भी, उसकीप्राकृतिकता से उद्गृहीत कर, चित्त की प्रत्य मुख वृत्ति में रूपान्तरितकर लेता है.
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किन्तु तब कहा जा सकता है किजब प्रेक्ष्य प्रस्तुत नहीं होता तब स्वयं प्रेक्षक ही अपने को प्रस्तुतहोता है और इस प्रकार इस प्रस्तुति में प्रेक्षक-प्रेक्ष्य के द्वैत कीस्थिति उत्पन्न होती हैः उदाहरणतः (१) मैं जानता हूं कि (मैं दुःखी हूं), (२) मैं जानता हूं कि (मैं जानता हूं कि, मैं दुःखी हूं), (३) मैं (अपनेजानने के जानने के जानने को) जानता हूं, आदि.
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हमें यह विचार युक्त प्रतीत होता है, क्योंकि जिस प्रकार मनःस्थितिप्रेक्षकत्व में ग्रह्य होकर ही प्रेक्ष्यत्व के रूप में स्फुट होती है, अन्यथा विषय-रूप में अस्फुट रहती है, उसी प्रकार अस्मिता के लिए भी है, यह चेतना के बौद्धिक स्तर पर ही प्रेक्षकत्व के लिए प्रेक्ष्य बनती है, जिसका अर्थ है कि अस्मिता के लिए स्फुटतः ग्राह्य होने के लिए उसी प्रकारआकार में रूपान्तरित होना अपेक्षित होता है जिस प्रकार मनःस्थितियों का.