आज भी गर्भवती माताओं को उत्तम धार्मिक भक्तिमान वातावरण में रखा जाय, भगवान् की अच्छी-अच्छी धार्मिक बातें उनको सुनाई जायें तो आज भी भारत में ध्रुव-प्रहलाद उत्पन्न हो सकते हैं।
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आज भी गर्भवती माताओं को उत्तम धार्मिक भक्तिमान वातावरण में रखा जाय, भगवान् की अच्छी-अच्छी धार्मिक बातें उनको सुनाई जायें तो आज भी भारत में ध्रुव-प्रहलाद उत्पन्न हो सकते हैं।
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चाहे अनन्त युग बीत जाएँ, भक्तिमान जीव ऊँच नीच माने गए चाहे किसी भी वर्ण या जाति में उत्पन्न हो,प्रारब्ध वश चाहे किसी भी योनि में उसे जाना पड़े पर अंततः वह संत ही रहता है.
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तेल की गरम गरम कढ़ाई में मुझे बिठाया गया तथा और जो भी असाधु कार्य मेरे पिता श्री ने मेरे विरुद्ध किये, आप में भक्तिमान मनुष्य से द्वेष करने के कारण जो उनहें पाप प्राप्त हुआ है...
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जो अनुकूल चीजें पाकर हर्षित नहीं होता, प्रतिकूलता में शोकातुर नहीं होता, जो ऐसा मानता है कि यह सब बदलने वाला है और मुझ आत्मा में शांत रहता है या आत्मा में सतर्क रहता है ऐसा भक्तिमान मुझे प्रिय है।
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मेरे भक्तिमान कनिष्ठ सहोदर पं. गुरुसेवक सिंह उपाध्याय बी. ए. डिप्टी कलक्टर मिर्जापुर ने जब इस ग्रन्थ की एक-एक प्रति महामहोपाधयाय पं. सुधाकर द्विवेदी इत्यादि सुजनों को अर्पण की थी, तो उन लोगों ने भी इस विषय में कई एक बातें कही थीं।
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” जिन्हें शत्रु, मित्र, मान, अपमान, ठंड, धूप, सुख, दु:ख समान है, जो आसक्तिरहित है, जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जो मननशील है, जो कुछ सहज रुप से मिले ईसमें संतोष माननेवाला है, जो ममतारहित है, वह स्थिर बुध्धिवाला, भक्तिमान पुरुष मुझे अतिप्रिय है ।
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अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ भावार्थ: जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥ 19 ॥ ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
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मुझे जो शस्त्रों से भन्ना, ऊपर से गिराया, अग्नि में जलाया, मेरे भोजन में विष मिलाया, और बाँध कर सागर में गिराया, शिलाओं से दबाया, तथा और जो भी असाधु कार्य मेरे पिता ने मेरे विरुद्ध किये, आप में भक्तिमान मनुष्य से द्वेष करने के कारण जो उनहें पाप प्राप्त हुआ है, हे प्रभु, आप की कृपा से जल्द ही मेरे पिता उस से मुक्त हो जायें ।
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ब्राह्मण देव! कृपा करके इस गाँव में रहो, मैं तुम्हारी सब प्रकार से सेवा-सुश्रूषा करूँगा, यह कहकर मुखिया ने मुनीश्वर सुनन्द को अपने गाँव में ठहरा लिया, वह दिन रात बड़ी भक्ति से उसकी सेवा करने लगा, जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातःकाल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्मा के सामने रोने लगा और बोला ” हाय! आज रात में राक्षस ने मेरे बेटे को खा लिया है, मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान और भक्तिमान था।