समस्त संसार में राजनीति ने एक काम किया था-आधुनिकता ने वीरपूजा और धर्म को तिलांजलि दे दी थी, पर मध्ययुगीन वीरपूजा की मान्यता और धर्म का कट्टर भावावेश-इन दोनों को राजनीति ने अपने में समाहित कर लिया था।
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सच बात तो यह है कि आचार्य शुक्ल में वीरपूजा का भाव इतना प्रबल है और वीरधर्म, राजधर्म और क्षात्राधर्म के प्रति इतनी गहरी आस्था है कि न केवल सगुण भक्ति काव्य बल्कि वीर गाथाओं के मूल्यांकन में भी इनकी भूमिका निर्णायक रही है।
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वे माध्यम थे वीरपूजा या धर्म, या तो उनका नायक कोई ऐसा महापुरुष होता था, जो समस्त मूल्यों और मर्यादाओं को निज में समाहित किए रहता था, जनता उसे आदर की दृष्टि से देखती थी और उसी के सुख-दुख से अपनी नियति को अनिवार्यत: आबद्ध मानती थी, या फिर धर्म को पीठिका के रूप में ग्रहण किया जाता था।
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वीरपूजा या धर्म के संदर्भ में जो प्रतिमान विकसित हुए थे, जिनका आश्रय इन आधुनिक धर्म के चिन्तकों ने भी ग्रहण किया है, उनके मिथ्या पड़ जाने के अन्य कारणों में से एक कारण यह भी है कि वे या तो असामान्य, विशिष्ट मनुष्य को अपना केन्द्र-बिंदु बनाते थे, या वे समस्त मानवीय नियति की चरम उपलब्धि लोकोत्तर सुख को मानते थे।
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इसी प्रकार रावण के साथी मारीच, खरदूषण और ताड़का का निपात यदि राम को लोकरक्षक बना सकता है तो कंस के साथी अघासुर, बकासुर और शकटासुर का निपात कृष्ण को लोकरक्षक क्यों नहीं बना सकता? सच बात तो यह है कि आचार्य शुक्ल में वीरपूजा का भाव इतना प्रबल है और वीरधर्म, राजधर्म और क्षात्राधर्म के प्रति इतनी गहरी आस्था है कि न केवल सगुण भक्ति काव्य बल्कि वीर गाथाओं के मूल्यांकन में भी इनकी भूमिका निर्णायक रही है।