भारतीय ' वीरपूजा ' का प्रसंग बड़ी मार्मिकता से बड़े सुन्दर अवसर पर जायसी लाए हैं।
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आज वीरपूजा का महत्व नहीं रहा, नायक विघटित हो चुके, धर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो गए।
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आज वीरपूजा का महत्व नहीं रहा, नायक विघटित हो चुके, धर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो गए।
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मीडिया ने जिस तरह इन दोनों ख़बरों से जी चुराया है, उससे साफ होता है कि वो किस कदर वीरपूजा और व्यक्तिपूजा में आकंठ लिप्त है।
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परिणाम यह हुआ कि राजनीति, वीरपूजा और धर्म का स्थानापन्न बन बैठी और कई देशों में उसने धीरे-धीरे विज्ञान और दर्शन को भी अपना अनुचर बनाने का प्रयास करना आरंभ किया।
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यह तर्क सिरे से ही अतार्किक है और यह अहसास दिलाता है कि पैदा होने से मरने तक जौहर, सतीत्व, वीरपूजा के अलावा स्त्री कोई और जीवन जीती ही नहीं थीं।
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“”प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन साहित्येतिहास आनुष्ठानिक रचनाओं, स्तोत्र साहित्य, वीरपूजा सम्बन्धी कृतियों, अलौकिक-प्रेम पर आधारित गीतों, पुराकालिक इतिवृत्तात्मक रचनाओं, सामान्य धार्मिक विश्वासों पर आधारित कथाओं और सामाजिक-व्यवस्था सम्बन्धी रचनाओं से समृद्ध है।
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” प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन साहित्येतिहास आनुष्ठानिक रचनाओं, स्तोत्र साहित्य, वीरपूजा सम्बन्धी कृतियों, अलौकिक-प्रेम पर आधारित गीतों, पुराकालिक इतिवृत्तात्मक रचनाओं, सामान्य धार्मिक विश्वासों पर आधारित कथाओं और सामाजिक-व्यवस्था सम्बन्धी रचनाओं से समृद्ध है।
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समस्त संसार में राजनीति ने एक काम किया था-आधुनिकता ने वीरपूजा और धर्म को तिलांजलि दे दी थी, पर मध्ययुगीन वीरपूजा की मान्यता और धर्म का कट्टर भावावेश-इन दोनों को राजनीति ने अपने में समाहित कर लिया था।