पिछले अंक में आचार्य भट्टलोल्लट और आचार्य शंकुक के रस संबंधी सिद्धांत क्रमशः उत्पत्तिवाद और अनुमितिवाद पर चर्चा की गयी थी।
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काव्यप्रकाश की संकेत टीका से और शंकुक आदि आचार्यों द्वारा इनका खंडन करने से ज्ञात होता है कि ये शंकुक के पूववर्ती थे।
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काव्यप्रकाश की संकेत टीका से और शंकुक आदि आचार्यों द्वारा इनका खंडन करने से ज्ञात होता है कि ये शंकुक के पूववर्ती थे।
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ध्वनि का खंडन करते हुए इन्होंने रस को अनुमेय सिद्ध किया है और इस प्रकार आचार्य शंकुक के अनुमितिवाद को और आगे बढ़ाया है।
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तथा शंकुक और समसामयिक आचार्य अभिनवगुप्त तीनों के मतों का ‘न प्रतीति होती है, न उत्पत्ति होती है और न ही अभिव्यक्ति होती है'
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वहीं आचार्य शंकुक “तटस्थ” नट आदि में रस की अनुमान द्वारा प्रतीति और संस्कारवश (वासना के कारण) सामाजिक अर्थात् दर्शकों द्वारा उसका आस्वादन मानते हैं।
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आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित ‘ रससूत्र ' पर टीकाएं लिखकर आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि ने रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की।
18.
ऐसे आचार्यों में उल्लेखनीय नाट्यशास्त्र के व्याख्याता हैं रीतिवादी भट्ट उद्भट, पुष्टिवादी भट्ट लोल्लट, अनुमितिवादी शंकुक, मुक्तिवादी भट्ट नायक और अभिव्यक्तिवादी अभिनव गुप्त।
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284 आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद है-रंगमंच पर कलाकार के कुशल अभिनय से उसमें मूल पात्र का कलात्मक अनुमान होता है, जैसे चित्र में घोड़ा वास्तविक नहीं होता है, देखने वाला अश्व का अनुमान लगाता है।
20.
भट्ट लोल्लट, भट्ट शंकुक, भट्ट नायक और अभिनवगुप्त इस सिद्धांत को आगे बढाने का काम करते हैं और काफी हद तक विषद विवेचन के आधार पर अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हुए भाव और उसके अंगों को पुष्ट करने का प्रयास करते हैं और यह भी समझाने की कोशिश करते हैं कि काव्य में क्या जरुरी है.