| 11. | सुभग न तू बुझने का भय कर;
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| 12. | अष्टावक्र सुभग जातक की बनी सुजाता मातु सही ॥
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| 13. | दृग में से निकलें नहीं, मेरे सुभग सुजान ।
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| 14. | राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही।।
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| 15. | सुभग सीतल कँवल-कोमल, जगत-ज्वाला-हरण।
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| 16. | राजिम, श्रीपुर से सुभग चम्पव उद्यान।
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| 17. | सुभग न तू बुझने का भय कर।
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| 18. | उर अति रुचिर नागमनि माला॥ सुभग सोन सरसीरुह लोचन।
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| 19. | बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को
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| 20. | बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥ 116. 8 उत्तरकाण्ड
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