“आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के”, और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान।
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यादें “हिन्दी” कविता की दुनियाँ: मैं प्रिय पहचानी नहीं: “पथ देख बिता दी रैन मैं प्रिय पहचानी नहीं! तम ने धोया नभ-पंथ सुवासित हिमजल से; सूने आँगन में दीप जला दिये झिल-मिल से; आ प्रात बुझा गया कौन...”
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महादेवी लिखती हैं: “ आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के ”, और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात / आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात / कसक में विद्युत अंतर्धान।