थरथरा रहे बादल, झरझरा बहे हिमजल अंग धुले,रंग घुले-शरद तरल छाया।
5.
वर्षा एवं हिमजल भू सतह पर गिरकर तीन भागों में विभक्त हो जाता है।
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उन्होंने स्पष्ट कहा है-‘ आग हूँ जिससे ढुलकते / बिंदु हिमजल के।
7.
नि: श्वास लेते हुए पुरुरवा ने कहा-” जीवन की पहली गर्मी में तुम्हें हिमजल का पात्र समझा था।
8.
यादें “हिन्दी” कविता की दुनियाँ: मैं प्रिय पहचानी नहीं: “पथ देख बिता दी रैन मैं प्रिय पहचानी नहीं! तम ने धोया नभ-पंथ सुवासित हिमजल से; सू...
9.
अब सवाल यह है, यह सतही हिमजल लघु ग्रह के गिर्द के गर्म माहौल में अरबों साल तक कैसे बना रहा, वास्पिकृत क्यों और कैसे नहीं हुआ.
10.
“आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के”, और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान।