| 21. | कहां सृष्टि संहार है कहं साधन है साध्य कहं साधक कहं सिद्धियां अद्वय स्वरूप मैं सदा।।
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| 22. | मनुष्य से मनुष्य ही नहीं प्राणी से प्राणी मात्र का अद्वय सम्बन्ध स्थापित करता है!
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| 23. | महायान बौद्ध दर्शन में भाव और अभाव की दृष्टि से परे ज्ञान को अद्वय कहते हैं।
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| 24. | यह द्वंद्व गया, यह विरोध गया, यह द्वैत गया, सब अद्वय हो गया।
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| 25. | कहां लोक है मुमुक्षु कित कहं योगी कहं ज्ञान कहां बद्ध अरु मुक्त है अद्वय स्वरूप हॅू सदा।।
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| 26. | अद्वैत में ज्ञान सत्ता की प्रधानता होती है और अद्वय में चतुष्कोटिविनिर्मुक्त ज्ञान की प्रधानता मानी जाती है।
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| 27. | लीला है इसलिए द्वैत है, प्रेम विलास विवर्त का अद्वय भाव इसीलिए असीम सुख का हेतु है!
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| 28. | यहां परिपूर्ण अद्वय तत्त्व के रूप में परमात्मा से मिलन होता है, जिससे भिन्न जगत् में कुछ भी नहीं है।
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| 29. | इन दोनों में ही राधा-कृष्ण को अद्वय मानकर उनकी सखियों को भी उन्हीं का एक अभिन्न अंग माना गया है।
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| 30. | और एक मात्र अद्वय भाव ही रास लीला की रमणेच्छा (रिरंसा) आल्हदिनी शक्ति का ही अनादि विकास है!
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