बाती के शीर्ष पर ज्योति बाकी तेल में डूबी रही दीर्घ से लघु रूप लेकर धन्य जो उत्सर्गी बनी फड़फड़ाते पतंगों को देख इक पल ज्योति थमी आखिरी पल भरपूर जीकर पुरजोर धधक उठी दीप को सूना किया और ॐ में विलीन हुई युग बीते इस खेल खेल में जग ने शिक्षा ली नहीं जिसने जानी उसने न मानी दीपज्योति की व्यथा यही