जब मंत्रोच्चार और जप किया जाता है तो ऐसा सुनाई देता है जैसे कुछ मानव-समूह आक्रमण कर रहे हों किन्तु कोई दिखाई नहीं पड़ता किन्हीं दूसरे लोकों से आये राक्षसों जैसे प्राणी धन आभूषण छत्र कवच ध्वजा सहित नगरवासियों का भक्षण करते हैं
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क्रांति के लिए तैयार करनी होती है ज़मीन समाज में बीजनी होती है विचारों की फ़सल रोटी की आपाधापी में बौराई भीड़ को संभाल बनाना पड़ता है चेतन मानव-समूह क्योंकि तभी जड़ होता है मज़बूत बहुत बाद में नारे और झंडे आते हैं काम
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यह निमित्त भेद अर्थात् देश, काल, परिवेश आदि से उत्पन्न विभिन्नातायें, एक मानव या मानव-समूह को दूसरों से सर्वथा भिन्न नहीं कर देतीं, प्रत्युत् वे उसे पार्थिव, बौद्धिक और रागात्मक दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व देकर ही मानव सामान्य सत्य के लिए प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
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अशोक भाटिया डस्टबिन संस्कृति की सड़ांध और एकतरफा अभियोगों की छिन्न-भिन्न मानसिकता को लघुकथाओं में बुनते हैं और मानव-समूह के सकारात्मक मूल्यों को ग्रहण एवं संग्रहण करते हुए रचनागत सामाजिक यथार्थ और वस्तुगत चेतना के बीच चरित्र और व्यक्तित्व को नई भाषा, शिल्प और शैली देते हैं, जहाँ अनुभवों की व्यापकता और सचेतन दृष्टि, लोकतांत्रिक व्यवस्था की संघर्षशील वैकल्पिक व्यवस्था भी संक्रमण-शक्ति होती है।
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जिस मनुष्य-समुदाय को कुत्तों के बीच जूठी पत्तल चाटने के लिए विवश कर दिया गया हो, जिस मानव-समूह के लिए सिर पर मॉल का कनस्तर ढोना ही भाग्य बन गया हो और जिस व्यष्टि समाज के कमजोर कन्धों पर मरे हुए ढोरों को ढोने का बेगार कर्म लाड दिया गया हो, उस अस्पृश्य-अंव्यज मानव-समाज का जीवन आचार्य शुक्ल के 'विश्व-काव्य की रसधारा' में क्योंकर 'निमग्न' होगा? वस्तुतः ऐसे आचार्य प्रवरों का साहित्य “काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छती धीमताम्” के परजीवी सामंती सूत्र पर आधारित है ।
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एक बच्चा सड़क पर रोता-रोता जाता था पीछे मुड़कर न देखता हुआ उसकी माँ पहनावे से ग़रीब उसके थोड़ा पीछे-पीछे आती थी न बच्चे को रोकती थी न ख़ुद रुकती थी वो क्यों रोता था कोई नहीं जानता वह क्यों उसे बिना चुप कराए बिना ढाढ़स बँधाए उसके पीछे जाती थी कोई नहीं जानता मेरे लिए हर कहीं उठता था रूदन विकल मानव-समूह में हर तरफ़ से आती थी ऐसी ही आवाज़ मैं भी कहीं रोता हुआ जाता था पर मेरे पीछे कोई नहीं आता था!