पुन: वह्नि के व्याप्य धूम से युक्त है यह पर्वत, इस तरह से धूम का प्रत्यक्ष पर्वत में होता है।
22.
भगवान सच्चिदानन्द स्वरूप से सबमें व्यापक हैं ; व्याप्य वस्तुएँ व्यापक का स्वरूप होती हैं ; अतः कुछ भी भगवान से भिन्न नहीं है |
23.
जैसी पृथ्वीत्व की परजाति (व्यापक सामान्य) द्रव्यत्व है और अपरजाति (व्याप्य सामान्य) घटत्व है, वैसी परजाति होने पर भी कोई अपरजाति आकाश की नहीं है।
24.
वृत्तिकार विश्वनाथ सिद्धान्त पंचानन ने व्यापक पदार्थ के अभाव में व्याप्य पदार्थ के आरोप से उस व्यापक पदार्थ के आरोप [67] रूप ऊह को तर्क कहा गया है।
25.
इस तर्क का विपरीत अनुमान में अर्थात् व्यापक उ आपाद्य के अभाव से व्याप्य उ आपादक के अभाव के अनुमान में पर्यवसन्न होना इसकी शुद्धता का निकष माना जाता है।
26.
इस तर्क का विपरीत अनुमान में अर्थात् व्यापक उ आपाद्य के अभाव से व्याप्य उ आपादक के अभाव के अनुमान में पर्यवसन्न होना इसकी शुद्धता का निकष माना जाता है।
27.
इसके विपरीत गंधादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती भूतों से व्याप्य हैं अर्थात् गंध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल अग्नि का व्याप्य है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्यता को समझना चाहिए।
28.
इसके विपरीत गंधादि गुणों के क्रम से वे भूत पूर्ववर्ती भूतों से व्याप्य हैं अर्थात् गंध गुणवाली पृथ्वी जल का और रसगुणवाला जल अग्नि का व्याप्य है, इत्यादि रूप से इनकी व्याप्यता को समझना चाहिए।
29.
इसी प्रकार प्रत्येक व्याप्य वस्तु अपने में व्यापक कारण-तत्त्व में विलीन होती है ; यथा पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में और वायु का आकाश में लय होता है |)
30.
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ भावार्थ: इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों द्वारा आप इन सब लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं॥ 16 ॥ कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।