वे प्रोप्रिओकेप्तिओन के साथ (शरीर की स्थिति की अनुभूति),चेष्टा-अक्षमता, संतुलन, अग्रानुक्रम चाल, और उंगली अंगूठे समानाधिकरण के उपायों पर समस्याओं दिखा सकते हैं.
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[1] [5] वे प्रोप्रिओकेप्तिओन के साथ (शरीर की स्थिति की अनुभूति),चेष्टा-अक्षमता, संतुलन, अग्रानुक्रम चाल, और उंगली अंगूठे समानाधिकरण के उपायों पर समस्याओं दिखा सकते हैं.
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जब ऐसे उदाहरणों के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते हैं जिनमें विभक्तियों का ऐसा समानाधिकरण नहीं है तब यह निश्चय हो जाता है कि उसका सन्निवेश पुरानी परंपरा का पालन मात्र है।
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इस ग़फ़्लत का एक और पठन शायद संभव है-देवदास अस्तित्व की जिस बिल्कुल भिन्न कल्पना को संभव करता है वह ‘प्रेमियों, पागलों, कवियों' (जिनको शेक्सपीयर समानाधिकरण में रखते हैं) के साथ साथ ‘नशेड़ियों' के लिये ही संभव है शायद.
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विशेषण विशेष्य के बीच विभक्तियों का समानाधिकरण अपभ्रंश काल में कृदंत विशेषणों से बहुत कुछ उठ चुका था, पर प्राकृत की परंपरा के अनुसार अपभ्रंश की कविताओं में कृदंत विशेषणों में मिलता है जैसे ' जुब्बण गयुं न झूरि ' गए को यौवन को न झूर गए यौवन को न पछता।
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दूसरा यह कि ' हिंदी ही ऐसी भाषा है जिसके अधिकतम नियम अपवादविहीन हैं।' पहली बार डॉ. कपूर ने वाक्य के समस्त घटकों का कर्त्ता, कर्म, अन्य विभिन्न कारक, समानाधिकरण पूरक, क्रियापद, क्रिया विशेषण आदि के रूप में प्रयुक्त सभी पदों और उपपदों का ऐसा विवेचन तथा विश्लेषण प्रस्तुत किया है जो गाह्य, स्तुत्य और अभूतपूर्व है।
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जो चिंताजनक है वो यह कि यह कविता यथार्थ को एक बहुत सरल भावुक फेबल में रिड्यूस करती है-उस सरल फार्मूले की तरह जो साईकिल और वक्त के पहिये को समानाधिकरण में रखता है-हर वो रचना-आलोचना जो दूसरों का कैरीकेचर करके अपने पक्ष में एक भावुक कथा / अनुभव/गल्प/झूठ/फेबल करती है उससे खुद अपनी और उस कविजी की आत्मा की एम.आर.आई. भी मांगी जा सकती है जो खुद 'इस 'आख्यान' को लिखने वाला है.
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|जब ऐसे उदाहरणों के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते हैं | जिनमे विभाक्तियो का एसा समानाधिकरण नही है तब यह निश्चय हो जाता है की उसका सन्निवेश पुरानी परम्परा का पालन मात्र है | इस परम्परापालन का निश्चय शब्दों की परीक्षा से अच्छी तरह हो जाता है| जब हम अपभ्रंश के शब्दों में मिट्ठ और मीठी दोनों रूपों का प्रयोग पाते हैं तब उस काल में मीठी शब्द के प्रचलित होने में क्यों संदेह हो सकता हैं?
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जो चिंताजनक है वो यह कि यह कविता यथार्थ को एक बहुत सरल भावुक फेबल में रिड्यूस करती है-उस सरल फार्मूले की तरह जो साईकिल और वक्त के पहिये को समानाधिकरण में रखता है-हर वो रचना-आलोचना जो दूसरों का कैरीकेचर करके अपने पक्ष में एक भावुक कथा / अनुभव / गल्प / झूठ / फेबल करती है उससे खुद अपनी और उस कविजी की आत्मा की एम. आर. आई. भी मांगी जा सकती है जो खुद ' इस ' आख्यान ' को लिखने वाला है.